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________________ १६ लोक- प्रज्ञप्ति मामा किससे लोए, अनंते लोए ? एवं तं चैव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव हब्वमागए । पं० से नृणं संदया ! अपम राम ? उ० हंता अत्थि । जेविय ते खंदया ! अयमेधारूवे अज्झत्थिए चितिए पत्विए ममोगर कप्पे सपा प० किलोए अलोए ? उ० तस्स वि यण अयमट्ठ े -- एवं खलु मए खंदया ! चउविहे लोए पण्णत्ते, तं जहा – (१) दवओ, (२) खेतओ, (३) कालओ, (४) भावओ ' लोक (१) दव्वओ णं एगे लोए सअंते, (२) ओ लोए अजाओ, जोपणको डाकोडीओ, आयाम - विक्खंभेण, असंखेज्जाओ जोयण कोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पण्णत्ते, अत्थि पुण सेअंते । (३) कालओ णं लाए न कयावि न आसि, न कयावि न भवति, न कयावि न भविस्सइ । भुवि च भवति य, भविसय, धुवे for सासए अक्खए अन्वए अब ट्ठिए णिच्चे । नत्थि पुण से अंते । १. (४) भावओ णं लोए अनंता वण्णपज्जवा, गंधपज्जवा, रसपज्जवा, फासपज्जवा, अनंता संठाणपज्जवा अणंता गरुय-लहुयपज्जवा, अनंता अगरुय-लहुयपज्जवा नत्थि पुण से अते । लोगस्स एगंत सासयत्तासासयत्तणिसेहो ३३ गाहाओ अणादीयं परिज्ञाय, अणवदग्गेति वा पुणो । सासयमसासए यावि इइ दिट्टिन धारए । एएहि बोहि ठाणेहि यवहारो न विद । एएहि दोहि ठाणेहि, अणायारं तु जाणए ॥ सेत्तं खंदगा ! दव्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सते, काल लोए अनंत भावओलए अते । -भग० स० २, उ० १ ० २३, २४-१ । 3 सूय० सु० २, अ० ५, गा० २-३ | भग० स० ११, उ० १०, सु० २ । २२-३३ wwwww मागध ! क्या यह लोक सान्त है या अनन्त ? इस प्रकार समस्त प्रश्न यावत् इसलिए उसी क्षण शीघ्र चलकर तू मेरे पास आया है ? प्रo हे स्कन्दक ! क्या मेरा यह कथन यथार्थ है ? उ० हाँ यथार्थ है । स्कन्दक ! जो यह तेरा आत्मिक चिन्तित - प्रार्थित मनोगत संकल्प हुआ है । प्र० क्या यह लोक सान्त है या अनन्त है ? उ० उसका समाधान यह है— स्कन्दक ! मैंने लोक चार प्रकार का कहा है, यथा - (१) द्रव्य से, (२) क्षेत्र से, (३) काल से, (४) भाव से । यह लोक एक है और सान्त है । (१) द्रव्य से (२) क्षेत्र से यह लोक असंख्य कोटाकोटी योजन का लम्बा चौड़ा है, असंख्य कोटाकोटी योजन की उसकी परिधि कही है और है । (३) काल से यह लोक कभी नहीं था - ऐसा नहीं है । कभी नहीं है - ऐसा नहीं है। कभी नहीं रहेगा - ऐसा भी नहीं है। यह लोक था, है और रहेगा। यह ध्रुव है, नियत है, शास्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है, नित्य है और इसका अन्त नहीं है । ( अर्थात् यह लोक काल से अनन्त है ।) (४) भाव से - लोक में अनन्त वर्ण- पर्यव हैं, गंध- पर्यव हैं, रस पर्यव हैं, स्पर्श-पर्यव हैं, अनंत संस्थान पर्यव हैं । अनन्त गुरुलघु पर्यव हैं, अनन्त अगुरु-लघु पर्यव हैं। और इसका अन्त हैं । (अर्थात् यह लोक भाव से अनन्त हैं ।) स्कन्दक ! द्रव्य से यह लोक सान्त है, क्षेत्र से यह लोक सान्त है, काल से यह लोक अनन्त है, भाव से यह लोक अनन्त है । लोक का एकांत शाश्वतत्व और अशाश्वत का निषेध २३ गावार्थ 'लोक को अनादि और अनन्त जानकर' - 'वह एकान्त शाश्वत है या एकान्त अशाश्वत है-ऐसी दृष्टि धारण न करे 1 इन दोनों एकान्त स्थानों से व्यवहार नहीं होता । इन दोनों स्थानों को स्वीकार करने को अनाचार जानना चाहिए ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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