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________________ सूत्र ३४-३७ लोक गणितानुयोग १७ लोयविसए अन्नतित्थियाणं पवादा लोक के सम्बन्ध में अन्यतीर्थिकों की मान्यतायें३४: ... अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा-. ३४ : अथवा-(वे अन्यतीथिक) अनेक प्रकार के वचन कहते हैंअत्थि लोए. पत्थि लोए, यथा-लोक एकान्ततः है, लोक एकान्ततः नहीं है, धुवे लोए, अधुवे लोए, लोक ध्रुव ही है, लोक अध्रुव ही है, साइए लोए, अणाइए लोए, लोक सादि ही है, लोक अनादि ही है, सपज्जवसिए लोए, अपज्जवसिए लोए ...। लोक सान्त ही है, लोक अनन्त ही है । -आया० सु० १, अ० ८ उ० १, सु० २०० । लोगविसये अण्णउत्थिय-मय पडिसेहो लोक के विषय में अन्यतीथिकों के मतों का निषेध३५: गाहाओ ३५ : गाथार्थइणमन्नं तु अन्नाणं, इहमेगेसिमाहियं । देव उत्ते अयं लोए, 'बंभउत्ते' त्ति आवरे।। एक अज्ञान यह भी है—कोई कहते हैं—यह लोक किसी देवता ने बनाया है, दूसरे कहते हैं-यह लोक ब्रह्मा ने बनाया है। ईसरेण कडे लोए, 'पहाणाई' तहावरे। कुछ ईश्वर-कर्तृत्ववादी कहते हैं-जीव और अजीव से तथा जीवाऽजीव - समाउत्ते, सुह-दुक्ख समभिए । सुख और दुख से युक्त यह लोक ईश्वर ने बनाया है। तथा दूसरे (सांख्यवादी)कहते हैं-यह लोक प्रधान (प्रकृति) आदि कृत है। सयंभुणा कडे लोए, इति वृत्तं महेसिणा। किसी महर्षि ने कहा है-यह लोक स्वयंभू (विष्णु) ने बनाया मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए॥ है। मार (यम) ने माया की रचना की है अतः यह लोक अनित्य है। माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे। कोई श्रमण ब्राह्मण कहते हैं-यह जगत् अण्डे से बना है। असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुसं वए । तथा ब्रह्मा ने तत्व की रचना की है-इस प्रकार ये लोग अज्ञानवश मिथ्या भाषण करते हैं। सहि परियाएहि, लोयं बूया कडे त्ति य। उक्तवादी अपने-अपने अभिप्राय (तर्क) से लोक को कृततत्तं ते ण विजाणंति, ण विणासी कयाइ वि ।। बना हुआ कहते हैं; वे तत्व (वस्तु-स्वरूप) को नहीं जानते हैं । -सूय० सु० १, अ० १, उ० ३, गा० ५-६ । वस्तुतः यह जगत् कभी विनष्ट नहीं होता। लोगे-चत्तारि समाणाणि३६ : चत्तारि लोगे समा सपक्खि सपडिविसि पण्णता, तं जहा लोक में चार समान हैं३६ : लोक में (एक लाख योजन परिमाणवाले) चार स्थान समान सपक्ष एवं सप्रतिदिक् (चारों ओर प्रत्येक दिशा में) कहे गये हैं, यथा (१) अप्रतिष्ठान नामक नरक, (२) जम्बूद्वीप नामक द्वीप, (३) पालक यानविमान, (४) सर्वार्थसिद्ध महाविमान । (१) अपइट्ठाणे नरए, (२) जंबुद्दीवे दीवे, (३) पालए जाणविमाणे', (४) सव्वट्ठसिद्ध महाविमाणे । -ठाणं ४, उ० ३, सु० ३२८ । ३७ : चत्तारि लोगे समा सक्खि सपडिदिसि पण्णत्ता, तं जहा(१) सोमंतए नरए, ३७ : लोक में (पैतालीस लाख योजन परिमाण वाले) चार स्थान समान सपक्ष एवं सप्रतिदिक् कहे गये हैं, यथा (१) सीमान्त नामक नरक, १. ठाणं० ३, उ० १, सु० १४८ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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