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________________ ३१२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महाद्रह वर्णन सूत्र ५४३. दो कोसे ऊसिए जलंताओ, सातिरेगाइं दसद्धजोयणाइं पानी की सतह से दो कोस ऊँचा है। उसका सम्पूर्ण प्रमाण सव्वग्गेणं पण्णत्ते। कुछ अधिक दस योजन का कहा गया है। तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, उस पद्म का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है-- तं जहा-वइरामया मूला, रिट्ठामए कंदे, वेरुलियामए यथा--उस पद्म के मूल वज्रमय हैं, कंदरिष्टरत्नमय है, नाले, वेरुलियामया बाहिरपत्ता, जंबूणदमया अभितरपत्ता, नाल (डंडी) वैडूर्यरत्नमय है, बाहर के पत्ते वैडूर्यरत्नमय है, तवणिज्जमया केसए, कणगामई कण्णिया, णाणामणिमया अन्दर के पत्ते जम्बूनद स्वर्णमय है, तपाये हुए स्वर्ण जैसे केशर हैं, पुक्खरस्थिभृगा। कनकमय कणिका है, कमल के स्तिबुक (जलकण) नानामणि मय है। साणं कणिया अद्धजोयणं आयाम-विक्खंभेणं, तं तिगुणं वह कणिका आधा योजन लम्बी-चौड़ी है, तिगुणी से कुछ सविसेसं परिक्खेवेणं, कोसं बाहल्लेणं, सव्वप्पणा कणगामई अधिक उसकी परिधि है, एक कोस की उसकी मोटाई है, और अच्छा-जाव-पडिरूवा।। पूर्ण रूप से वह कनकमयी है, स्वच्छ है-यावत्-मनोहर है। तीसेणं कण्णियाए उरि बहुसमरमणिज्जे देसभाए पण्णत्ते उस कणिका के ऊपर का कुछ भाग अधिक सम एवं रमणीय -जाव-मणीहि तिर्णेहिं उवसोभिए । कहा गया है यावत्-मणियों से निर्मित है। तृण आदि से उपशोभित है। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उस अधिक सम एवं रमणीय भूभाग के ठीक मध्यभाग में –एत्थ णं एगे महं भवणे पण्णत्ते । एक महान् भवन कहा गया है । कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूर्ण कोस उड्ढे वह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा, कुछ कम एक कोस उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसनिविट्ठ-जाव-वण्णओ। ऊपर की ओर ऊँचा है उसमें सैकड़ों स्तम्भ लगे हुए हैं-यावत् (भवन) वर्णन कहना चाहिए । तस्स णं भवणस्स तिविसि तओदारा पण्णत्ता, तं जहा- उस भवन के तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं, यथा१ पुरथिमेणं, २ दाहिणेणं, ३ उत्तरेणं । (१) पूर्व दिशा में एक द्वार, (२) दक्षिण दिशा में एक द्वार, (३) और उत्तर दिशा में एक द्वार है । तेणं दारा पंचधणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अड्ढाइज्जाई वे द्वार ऊपर की ओर पाँच सौ धनुष ऊँचे हैं। ढाई सौ धणसयाई विक्खं भेणं, तावतियं चैव पवेसेणं, सेया बरकणग- धनुष चौड़े हैं। उनका प्रवेश मार्ग भी उतना ही चौड़ा है । श्वेत थुभियागा-जाव-वणमालाउत्ति। श्रेष्ठ कनक निर्मित स्तूपिकायें हैं-यावत्-वनमालायें हैं। तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, उस भवन के अन्दर का भू-भाग अधिक सम एवं रमणीय से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा-जाव-मणीणं वण्णओ। कहा गया हैं। चर्म से मंढे हुए मृदंग वाद्य जैसा है-यावत् - मणियों का वर्णन कहना चाहिए। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उस भवन के अधिक सम एवं रमणीय भू-भाग के ठीक मध्य -एत्थ णं मणिपेढिया पण्णत्ता । भाग में एक मणिपीठिका कही गई । पंचधणुसयाई आयाम-विक्खं भेणं, अड्ढाइज्जाई धणुसयाई वह मणिपीठिका पाँच सौ धनुष की लम्बी-चौड़ी है, ढाई सौ बाहल्लेणं, सब्वमणिमई अच्छा-जाव-पडिरूवा। धनुष की मोटी है एवं सारी मणिमयी स्वच्छ-यावत् प्रतिरूप है। तीसे गं मणिपेढियाए उरि-एत्थ णं एगे महं देव- उसी मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशय्या कही गई सयणिज्जे पण्णत्ते । देवसयणिज्जस्स वण्णओ। है । देवशय्या का वर्णन कहना चाहिए। से णं पउमे अण्णेणं अट्ठसएणं तदद्धच्चत्तप्पमाणमेत्ताणं वह (पूर्वोक्त) पद्म उससे आधे जितनी ऊंचाई के प्रमाण, पउमाणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते । वाले अन्य एक सौ आठ पद्मों से चारों ओर से घिरा हुआ है। श्रेष्ठ
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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