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सूत्र ५४३-५४४
लेणं पठमा सजवणं आयाम-विषमेतं तिगुणं सविसेसं परिवणं कोर्स बाहल्लेणं दसजोगाई उज्बेगं कोसं ऊसिया जलंताओ, साइरेगाई दसजोयणाइं सव्वग्गेणं पण्णत्ताई ।
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तेसि णं पउमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णसे
तं जहा वइरामया मूला जाव णाणामणिमया पुक्खरत्थि - भुगा ।
ताओ णं कण्णियाओ को आयाम-विवखंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिवणं, अद्धको बाहल्लेणं सव्यकममामईओ अच्छाओ जाव- पडिरूवाओ ।
तिर लोड महाग्रह वर्णन
तासि णं णिवा पि बहुसमरमणिया भूमिभागा - जाव मणीणं वण्णो गंधो फासो ।
तस्स णं पउमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तर-पुरत्थिमेणं हस कुमारदेवरस चउन्हं सामायिसाहस्सोगं यत्तारि पउमसाहसीओ पण्णलाओ ।
एवं सव्वो परिवारो नवरि पउमाणं भाणियव्वो । से उसे अतिहि पमवरपरिखवेहि सम्ब समता संपरिवत्तं तं जहा
१ अमितरेणं २ मा बाहिरएवं अभितरणं पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ।
मज्झिमए पमपरिक्लेवे चत्तालीस पउमसयसाहसीओ पण्णत्ताओ ।
बाहिरएणं परमपविचे अडवाली परमसवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ।
एवमेव सावरे एगा पडमोडी वीसं च परमसय सहस्सा भवतीतिमक्खाया।
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-जीवा० प० ३, उ० २, सु० १४६
उ०- गोयमा ! नीलवंतद्दहे णं तत्थ तत्थ जाई उप्पलाई - जाव सतसहस्सपत्ताइं नीलवंतप्पभाई नीलवंतवण्णाई ।
जीवंतद्दकुमारेय नागकुमारे देवे महिड्ढीए-जावपलिओयमईए परिवसद्द ।
सो व मोजावनी
गणितानुयोग ३१३
वे पद्म आधायोजन लम्बे-चौड़े हैं, लिगने से कुछ अधिक उनकी परिधि है वे एक कोन मोटे हैं, दस योजन महरे हैं, जस की सतह से एक कोश ऊंचे हैं। सब मिलाकर कुछ अधिक दस योजन के कहे गये हैं ।
उन पद्मों का वर्णन इस प्रकार कहा गया है—
यथा- उनके मूल वज्रमय है- यावत् — कमल के स्तिबुक (जल) नाना मणिमय है।
उनकी कणिकायें एक कोस लम्बी-चौड़ी है, तिगुणे से कुछ अधिक उनकी परिधि है, आधा कोस मोठे हैं सभी कनकमय है, स्वच्छ है - यावत्-मनोहर है।
उन कणिकाओं के ऊपर का भू-भाग अधिक सम एवं रमणीय है - यावत - मणियों के वर्णगंध और स्पर्श कहने चाहिए।
नीलवंतद्दहरस णामहेऊ
नीलवन्तद्रह के नाम का हेतु
५४४. १० – से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चइ - नीलवंतद्दहे, नील- ५४४ प्र० - भगवन् ! नीलवन्तद्रह नीलवन्तद्रह क्यों कहा जाता है ?
वंत हे ?
उस पद्म के पश्चिमोत्तर में उत्तर में, और उत्तर-पूर्व में नीलवन्तद्रह कुमारदेव के चार हजार सामानिकदेवों के बार हजार पद्म कहे गये हैं ।
इस प्रकार सभी पद्मों का परिवार कहना चाहिए। विशेष-वह (पूर्वोक्त) पद्म श्रेष्ठ पद्मों की तीन परिधियों से चारों ओर से घिरा हुआ है । यथा(१) आभ्यन्तर, (२) मध्यम, (३) बाह्य । आभ्यन्तर पद्म परिधि बत्तीस लाख पद्मों की कही गई है ।
मध्यम पद्म परिधि चालीस लाख पद्मों की कही गई है ।
बाह्य पद्मपरिधि अड़तालीस लाख पदमों की कही गई।
इस प्रकार पूर्वापर के सब मिलाकर एक करोड़ बीस लाख पद्म होते हैं- ऐसा कहा गया है।
उ०- गौतम ! नीलवंतद्रह में जगह-जगह जितने उत्पल हैं। - यावत् - शतपत्र, सहस्रपत्र हैं वे सब नीलवन्त ( वर्षधर पर्वत ) जैसी प्रभा वाले हैं और नीलवंत जैसे वर्ण वाले हैं ।
नीलवन्तद्रह में नीलवन्त (नाग) कुमार देव महधिक- यावत्पत्योपम की स्थिति वाला रहता है ।
नीवंत है।
( ग्रह की शास्वतता का कथन पूर्व के समान है— यावत्- जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १४६ नीलवन्तद्रह नीलवन्तद्रह कहा जाता है ।