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________________ २७८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन सूत्र ४५३-४५५ कूडाणं तं चेव पंचसइयं परिमाणं....-जाव-एगसेले अ इन कूटों का परिमाण वही पांच सौ योजन है-यावत्देवे महिद्धीए। ‘एकशैल" महधिक देव यहाँ रहता है । सोलसहं वक्खारपव्वयाणं चित्तकूड वत्तव्वया-जाव- चित्रकूट के कथन के समान सोलह वक्षस्कार पर्वतों का कूडा चत्तारि चत्तारि । कथन भी है-यावत्-उन सब पर्वतों पर चार-चार कूट हैं । __-जंबु० वक्ख० ४, सु० ८६ चउसु गजदंतागारवक्खारपव्वएसु बत्तीसं क डा- गजदन्ताकार चार वक्षस्कार पर्वतों पर बत्तीस कूट गंधमायण (गजदंतागार) वक्खारपव्वए सत्तक डा- गजदन्ताकार गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत पर सात कूट४५४. ५०-गंधमायणे णं भंते ! वक्खारपब्वए कति कूडा पण्णत्ता? ४५४. प्र०-हे भगवन् ! गंधमादन वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! सत्त कूडा पण्णत्ता, तं जहा उ०-हे गौतम ! सात कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ गंधमायणेकडे, ३ गंधिलावईकूडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) गंधमादनकूट, (३) गंधिलावती४ उत्तरकुरुकूडे, ५ फलिहकूड, ६ लोहियक्खकूड, कूट, (४) उत्तर-कुरुकूट, (५) स्फटिककूट, (६) लोहिताक्षकूट, ७ आणंदकूट। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८६ (७) आनन्दकूट । सिद्धाययणक डस्स अवट्ठिई पमाणं च सिद्धायतनकूट की अवस्थिति और प्रमाण४५५. ५०-कहि गं भंते ! गंधमायणे वक्वारपव्वए सिद्धाययण- ४५५. प्र०-हे भगवन् ! गंधमादन वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन कूड णामं कूड पण्णते? कूट नाम का कूट कहाँ कहा गया है ? उ०-- गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-पच्चत्थिमेणं, गंध- उ०-हे गौतम ! मंदरपर्वत के उत्तर-पश्चिम में, गन्ध मायण कूडस्स दाहिण-पुरथिमेणं-एत्थ णं गधमायणे मादनकूट के दक्षिण-पूर्व में गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत पर वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूड णामं कूड पण्णत्ते । सिद्धायतनकूट नाम का कूट कहा गया है । जं चेव चुल्लहिमवते सिद्धाययणकूडस्स पमाणं तं चेव क्षुद्र हिमवान् पर्वत के सिद्धायतनकूट का जो प्रमाण है वही एएसि सव्वेसि भाणियव्वं । इन सब कूटों का कहना चाहिए। एवं चेव विदिसाहि तिण्णि कूडा भाणियब्वा । इसी प्रकार तीनकूट विदिशाओं में कहने चाहिए। चउत्थे तत्तिअस्स उत्तर-पच्चत्थिमेणं, पंचमस्स दाहिणेणं, चतुर्थकूट तृतीयकूट के उत्तर-पश्चिम में है, पंचमकूट दक्षिण सेसा उ उत्तर-दाहिणणं । शेषकूट उत्तर-दक्षिण में है। १ षोडशवक्षस्कारपर्वतानां चित्रकूट-वक्तव्यता ज्ञया यावच्चत्वारि चत्वारि कूटानि व्यावणितानि भवन्तीति । -जम्बू० वृत्ति २ जम्बूद्दीवे दीवे गंधमायणे वक्खारपव्वए सत्तकूडा पण्णत्ता, तं जहा-गाहा-(१) सिद्ध य (२) गंधमायणे, बोद्धव्वे (३) गंधिलावतीकूडे । (४) उत्तरकुरु (५) फलिहे, (६) लोहितक्खे, (७) आणंदणे चेव ।। -ठाणं० ७, सु० ५६० ३ मेरुत उत्तर-पश्चिमायां सिद्धायतनकूट, तस्मादुत्तर-पश्चिमायां गन्धमादनकूट, तस्माच्च गन्धिलावतीकूटमुत्तर-पश्चिमायामिति । - जम्बू० वृत्ति ४ चतुर्थमुत्तर कुरुकूटं तृतीयस्य गन्धिलावतीकूटस्योत्तरपश्चिमायां, पञ्चमस्य स्फटिककूटस्य दक्षिणतः । प्र.-नन यथा तृतीयाद् गन्धिलावतीकूटाच्चतुर्थं उत्तरकुरुकूटमुत्तर-पश्चिमायां, चतुर्थाच्च तृतीयं दक्षिण-पूर्वस्या, तथा पञ्चमात स्फटिककूटात् कथं दक्षिण-पूर्वस्यां चतुर्थ कूटं न सङ्गच्छते? उ०-उच्यते पर्वतस्य वक्रत्वेन चतुर्थकूटत एव दक्षिण-पूर्वाप्रति बलनात् पञ्चमाच्चतुर्थं दक्षिणस्यामिति शेषाणि स्फटिक कूटादीनि श्रीणि उत्तर-दक्षिणश्रेणिव्यवस्थया स्थितानि । प्र०-कोऽर्थः? उ०-पञ्चमं चतुर्थस्योत्तरतः, षष्ठस्य दक्षिणतः, षष्ठं पञ्चमस्योत्तरतः, सप्तमस्य दक्षिणतः सप्तमं षष्ठस्योत्तरत इति परस्पर मुत्तर-दक्षिणभाव इति । -जम्बू• वृत्ति
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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