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सूत्र १७०-१७७
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
गणितानुयोग
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१७०. तासि णं जिणपडिमाणं पुरओ दो दो नागपडिमाओ, दो दो १७०. इन जिन प्रतिमाओं के सामने विनयावनत चरणों में झुकी
जवखपडिमाओ, दो दो भूतपडिमाओ, दो दो कुण्डधारपडि- हुई और हाथ जोड़े हुए दो-दो नाग प्रतिमायें, दो-दो यक्ष प्रतिमायें, माओ, विणओणयाओ, पायवडियाओ, पंजलिउडाओ संण्णि- दो-दो भूतप्रतिमायें, और दो-दो कुण्डधारिणी-आज्ञाकारिणी विखत्ताओ चिट्ठन्ति । सव्वरयणामईओ अच्छाओ-जाव-पडि- प्रतिमायें खड़ी हुई हैं, ये सभी प्रतिमायें सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ रूवाओ।
-यावत्-प्रतिरूप हैं। १७१. तासि जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं, अट्ठसयं चंदण- १७१. इन जिन प्रतिमाओं के समक्ष एक सौ आठ घंटा, एक सौ
कलसाणं, एवं अट्ठसयं भिंगारगाणं, अट्ठसयं आयंसगाणं, अट्ठ- आठ चन्दन कलश, एक सौ आठ भृगारक-झारी, एक सौ आठ सयं थालाणं, अट्ठसय पातीणं, अट्ठसयं सुपइटगाणं, अट्ठसयं आदर्शक-दर्पण, एक सौ आठ पात्री, एक सौ आठ सुप्रतिष्ठान, मणगलियाणं, अट्टसयं वातकरगाणं, अट्ठसयं चित्ताणं, अट्ठसयं एक सौ आठ मनोगुलिका, एक सौ आठ वातकरक (कोरे घड़े), रयणकरंडगाणं, अट्ठसयं हयकंठगाणं-जाव-उसभकं ठगाणं, अटु- एक सौ आठ चित्र, एक सौ आठ रत्नकरंडक, एक सौ आठ सयं पृष्फचंगेरीण-जाव-लोमहत्थ-चंगेरीणं, अट्ठसयं पुष्फपडल- अश्वकंठा-यावत् -वृषभकठा, एक सौ आठ पु पचंगेरिकायें गाणं, अट्ठसयं तेल्लसमुग्गाणं-जाव-धूवकडुच्छयाणं संणिक्खित्तं --यावत्-मयूरपिच्छिकायें, एक सौ आठ पुष्पपडलक और एक चिट्टन्ति।
सौ आठ तेल समुद्गक-यावत्-धूपकडुच्छक-धूपदान रखे हुए हैं। १७२. तस्स णं सिद्धायतणस्स उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा, झया, १७२. इस सिद्धायतन के ऊपर अनेक आठ-आठ मंगलद्रव्य,
छत्ताइछत्ता, उत्तिमागारा, सोलसविहेहिं रयणेहिं उबसोभिया, ध्वजायें और छत्रातिछत्र हैं, जो उत्तम आकार वाले और सोलह तं जहा–रयहि-जाव-रिट्ठ हिं।।
प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं, यथा-वैडूर्य रत्नों से-यावत्-जीवा०प०३, उ०२, सु०१३६ रिष्टादि रत्तों से अर्थात् वैडूर्य आदि से लेकर रिष्ट रस्त पर्यन्त
सोलह प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं । एगा महा उववायसभा
एक महान उपपातसभा-- १७३. तस्स णं सिद्धाययणस्स णं उत्तर-पुरस्थि मेणं एत्थणं एगा १७३. इस सिद्धायतन के उत्तर पूर्व दिशा में -ईशान कोण में
महा उबवायसभा पण्णत्ता, जहा सुहम्मा तहेव-जाब-गोमाण- एक विशाल उपपात सभा कही गई है, जैसा वर्णन सधर्मा सभा सीओ । उववायसभाए वि दारा, मुहमंडवा, सब्वे भूमिभागे का है, उसी प्रकार का गोमानसिकी तक समग्र वर्णन इसका भी तहेव मणिफासो । (सुहम्मा सभा वत्तवया भाणियव्वा-जाव- समझना चाहिये, अर्थात् उपपात सभा के तीन द्वार है. उनके भूमीए फासो)।
आगे मुखमंडप है, इत्यादि सबका कथन यहाँ पर गोमानसिका के वर्णन तक करना चाहिये, उसके बाद उल्लोक का वर्णन और भूमिभाग का वर्णन मणिस्पर्श के वर्णन तक करना चाहिये, (सुधर्मा सभा की समग्र वक्तव्यता भूमिस्पर्श तक का यहाँ कथन
करना चाहिए।) १७४. तस्स णं बहसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए- १७४. इस बहुसम रमणीय भूमिभाग के मध्यभाग में एक विशाल
एत्थ णं एगा महा मणिपेढिया पण्णत्ता, साणं जोयणमेगं मणिपीठिका कही गई है, वह एक योजन को लम्बी-चौड़ी, आधे आयाम-विवखंभेणं, अद्धजोयणं बाहरूलेणं, सध्वमणिमई अच्छा योजन की मोटी, सर्वात्मना रत्नों की बनी हई, स्फटिकमणि के -जाव-पडिरूवा।
समान स्वच्छ-यावत् – प्रतिरूप है। १७५. तीसे गं मणिपेढियाए उप्पि- एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे १७५. इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशय्या कही गई पष्णते, तस्स ण देवसयणिज्जस्स वण्णओ।
है, इस देवशय्या का वर्णन पहले के समान करना चाहिये । १७६. उववाय सभाए णं उप्पि अट्ठमंगलगा, झया, छत्ताइछत्ता १७६. उपपात सभा के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य, ध्वजायें, -जाव-उत्तिमागारा।
छवातिछत्र हैं, जो रत्नों के बने हुए-यावत् - उत्तम आकार -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १४० के हैं । हरयरस पमाणं
ह्रद का प्रमाण१७७. तोसे णं उववाय सभाए उत्तर-पुरथिमेणं-एत्थ णं एगे महं १७७. इस उपपात सभा के उत्तर-पूर्व दिशा में-ईशान कोण में