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________________ १७० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १७७-१८३ हरए पण्णत्ते, सेणं हरए अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं, छ एक विशाल ह्रद कहा गया है, वह ह्रद साढ़े बारह योजन का कोसाई जोयणाई विक्खभेणं, दस जोयणाई उध्येहेणं, अच्छे लम्बा, कोसाधिक छह योजन का चौड़ा, दस योजन गहरा, स्वच्छ -जाव-पडिरूवे । जहेव णंदाणं पुक्खरणीणं-जाव-तोरण- -यावत्-प्रतिरूप है । जैसा नन्दा पुष्करिणी का वर्णन पूर्व में वण्णओ। -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १४० किया गया है उसी प्रकार इस हद का वर्णन भी तोरणों के वर्णन तक कर लेना चाहिये। एगा महा अभिसेयसभा एक महा अभिषेक सभा१७८. तस्स गं हरयस्स उत्तर-पुरत्थिमेणं-एत्थ णं एगा महा १७८. उस ह्रद के ईशानकोण में एक विशाल अभिषेक सभा अभिसेयसभा पण्णता, जहा सभासुहम्मा तं चेव निरवसेसं कही गई है, जैसा सुधर्मासभा का वर्णन है, वह समग्र वर्णन -जाव- गोमाणसीओ, भूमिभाए, उल्लोए तहेव । गोमानसिका के वर्णन तक यहाँ भी करना चाहिये, उसके बाद यहाँ के भूमिभाग का व उल्लोक का वर्णन भी पूर्व के समान करना चाहिये। १७६. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए- १७६. इस अभिषेक सभा के बहुसम रमणीय भूमिभाग के बीचों एत्थ णं एगा महा मणिपेढिया पण्णत्ता, सा णं जोयणमेगं बीच एक विशाल मणिपीठिका कही गई है, यह मणीपिठिका एक आयाम-विक्खंभेणं, अद्धजोयण बाहल्लेणं, सव्वमणिमया अच्छा योजन की लम्बी-चौड़ी, आधे योजन की मोटी, सर्वात्मना रत्नों की -जाव-पडिरूवा। बनी हुई, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है । १८०. तीसे गं मणिपेज्यिाए उप्पि-एत्थ गं एगे महं सोहासणे १८०. इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल सिंहासन कहा गया पण्णत्ते, सीहासण-वण्णओ, अपरिवारो। है, इस सिंहासन का वर्णन भद्रासन आदि परिवार को छोड़कर -जीवा० प० ३, उ० २, सु० १४० करना चाहिये। विजयदेवरस अभिसेक्कं भंड विजयदेव का अभिषेक पात्र१८१. तत्थ णं विजयदेवस्स सुबह अभिसेक्के भंडे संणिक्खित्ते चिट्टइ। १८१. इस सिंहासन पर विजयदेव का एक बहुत सुन्दर अभिषेक पात्र रखा हुआ है। अभिसेयसभाए उप्पि अट्ठमंगलए-जाव-उत्तिमागारा अभिषेक सभा के ऊपर आठ-आठ मंगल द्रव्य है-यावतसोलसबिहेहिं रयणेहि उवसोभिया, तं जहा - रयणहि-जाव- उत्तम आकारवाले, सोलह प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं, रिट्ठहि। --जीवा०प० ३, उ० २, सु० १४० यथा-वज्रदन्तों-यावत्-रिष्टरत्नों से सुशोभित हैं। एगा महा अलंकारियसभा एक महान अलंकार सभा१८२. तीसे णं अभिसेयसभाए उत्तर-पुरत्थिमेणं-एत्थ णं एगा १८२. इस अभिषेक सभा के उत्तर पूर्व दिग्भाग-ईशानकोण में महा अलंकारियसभा वत्तव्वया भाणियब्वा-जाव-गोमाणसीओ, एक श्रेष्ठ विशाल अलंकारिक सभा है, उसके प्रमाण, द्वारत्रय मणिपेढियाओ, जहा अभिसेयसभाए उप्पि सीहासणं आदि का समग्र वर्णन-यावत्-- गोमानसिका, मणिपीठिका पद सपरिवार। तक पूर्व के समान करना चाहिये, तथा अभिषेक सभा में एक -जीवा०प० ३, उ०२, सु०१४० मणिपीठिका है, उस पर भद्रासन आदिरूप परिवार से रहित सिंहासन रखा है, इत्यादि जो वर्णन है, उसी प्रकार का वर्णन इस अलंकार सभा का करना चाहिये । विजयदेवस्स अलंकारियभंडे विजयदेव का अलंकार पात्र१८३. तत्थ णं विजयस्स देवस्स सुबहु अलंकारिए भंडे संनिक्खित्ते १८३. इस सिंहासन पर विजयदेव का एक बहुत अच्छा अलंकार चिट्ठन्ति । उत्तिमागारा. अलंकारियसभाए उप्पि अट्टमंगलगा, भांड रखा हुआ है, इस अलंकार सभा के ऊपर आकार प्रकार के झया-जाव-छत्ताइछत्ता। आठ-आठ मंगल द्रव्य, ध्वजायें-यावत-छत्राति छत्र है। -जीवा०प०३, उ०२, सु०१४०
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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