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________________ ८० गणितानुयोग : भूमिका सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा, इन पांच जाति के ज्योतिषी १५ मंडलों में चन्द्रमास में १४+ITA मंडल ही चलता है,. देवों के विमान हैं । ये सभी विमान यतः ज्योतिर्मान या प्रकाश- अतः चन्द्रमास के अनुसार वर्ष में ३५५ या ३५६ ही दिन होते स्वभावी हैं, अतः इन्हें ज्योतिष्क-लोक कहते हैं। और उनमें है। रहने वाले ज्योतिष्क देवों के निवास के कारण उक्त क्षेत्र जैन मान्यतानुसार लवण-समुद्र में ४ सूर्य और '४ चन्द्र हैं।' ज्योतिष्क-लोक कहलाता है । तिरछे रूप में ज्योतिष्क धातकीखण्ड में १२ सूर्य १२ चन्द्र हैं। कालोद-समुद्र में ४२' लोक स्वयम्भूरमण समुद्र तक फैला हुआ है। इसमें ७६० योजन सूर्य और ४२ चन्द्र है। पुष्करार्ध-द्वीप में ७२ सूर्य और ७२ की ऊँचाई पर सर्वप्रथम ताराओं के विमान हैं। उनसे १० चन्द्र हैं । पुष्कराध के परवर्ती अर्ध भाग में भी ७२-७२ ही योजन की ऊँचाई पर सूर्य का विमान है। सूर्य से ८० योजन सूर्य-चन्द्र हैं । इससे आगे स्वयम्भूरमण-समुद्र पर्यन्त सूर्य और ऊपर चन्द्र का विमान है। चन्द्र से ४ योजन ऊपर नक्षत्र हैं। चन्द्र की संख्या उत्तरोत्तर दूनी-दूनी है। नक्षत्रों से ४ योजन ऊपर बुध का विमान है। बुध से ३ योजन एक चन्द्र के परिवार में एक सूर्य, अट्ठाईस नक्षत्र, अठ्यासी ऊपर शुक्र का विमान है । शुक्र से ३ योजन ऊपर गुरु का विमान ग्रह और ६६६७५ कोड़ाकोड़ी तारे होते हैं। जम्बूद्वीप में दो है । गुरु से ३ योजन ऊपर मंगल का विमान है । और मंगल से चन्द्र होने से नक्षत्रादि की संख्या दूनी जाननी चाहिए । इस ३ योजन ऊपर शनैश्चर का विमान है। इस प्रकार सर्व प्रकार सारे ज्योतिर्लोक में असंख्य सूर्य, चन्द्र हैं । इनसे अट्ठाईस ज्योतिष्क विमान-समुदाय एक सौ दस योजन के भीतर पाया गुणित नक्षत्र और अठयासी गुणित ग्रह हैं । तथा सूर्य से '६६६७५ जाता है। कोड़ाकोड़ी गुणित तारे हैं। ___ मध्य-लोकवर्ती तीसरे पुष्कर-द्वीप के मध्य में जो मानुषोत्तर मनुष्यलोकवर्ती ज्योतिष्क-विमान यद्यपि स्वयं गमन-स्वभावी पर्वत है, वहाँ तक का क्षेत्र मनुष्यलोक कहलाता है। इस हैं, तथापि आभियोग्य जाति के देव; सूर्य चन्द्रादि विमानों को मनुष्यलोक के भीतर सर्व ज्योतिष्क-विमान मेरु की प्रदक्षिणा गतिशील बनाये रखने में निमित्त-स्वरूप हैं। ये देव सिंह, गज, करते हुए निरन्तर घूमते रहते हैं। यहाँ पर सूर्य के उदय और बैल और अश्व का आकार धारण कर और क्रमश: पूर्वादि अस्त से ही दिन-रात्रि का व्यवहार होता है। मनुष्यलोक के चारों दिशाओं में संलग्न रहकर मर्यादि को गतिशील बनाये बाहरी भाग से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र तक के असंख्यात योजन । रखते हैं। विस्तृत क्षेत्र में जो असंख्य ज्योतिष्क-विमान हैं, वे घूमते नहीं, किन्तु सदा अवस्थित रहते हैं। जम्बूद्वीप में मेरु के चारों ओर ७-ऊर्ध्व-लोक ११२१ योजन तक ज्योतिष्क-मण्डल नहीं है। लोकान्त में भी मेरु-पर्वत को तीनों लोक का विभाजक माना गया है। मेरु इतने ही योजन छोड़कर ज्योतिष्क-मण्डल अवस्थित है। इसके के अधस्तन भाग को अधोलोक और मेरु के ऊपर के भाग को मध्यवर्ती भाग में यथासंभव अन्तराल के साथ सर्वत्र वह फैला ऊध्वं-लोक कहते हैं। ऊर्ध्व लोक में श्वेताम्बरीय मान्यतानुसार हुआ है। स्वर्गों की संख्या बारह है और दिगम्बरीय मान्यतानुसार सोलह जैन मान्यता के अनुसार जम्बूद्वीप में २ सूर्य और २ चन्द्र है। इन स्वर्गों में कल्पवासी देव और देवियाँ रहती हैं। इनसे हैं । एक सूर्य मेरु पर्वत की पूरी प्रदक्षिणा दो दिन रात में करता ऊपर नौ अवेयक, उनके ऊपर दिगम्बरीय मान्यतानुसार नौ है। इसका परिभ्रमण-क्षेत्र जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन और अनुदिश और उनके ऊपर पांच अनुत्तर विमान हैं। इन विमानों लवण-समुद्र के भीतर ३३० योजन है। सूर्य के घूमने के में रहने वाले देव कल्पातीत कहलाते हैं, क्योंकि उनमें इन्द्र, मण्डल १८३ हैं। एक मण्डल से दूसरे मण्डल का अन्तर दो मार दो सामानिक आदि कल्पना नहीं है, वे उससे परे हैं। इन विमानों योजन का है । इस प्रकार प्रथम मण्डल से अन्तिम मण्डल तक म रहन वाले देव समान वभव वाले हैं और सभी अपने 3 परिभ्रमण करने में सूर्य को ३६६ दिन लगते हैं। सौर मास के इन्द्र-स्वरूप से अनुभव करते हैं, इसलिए वे (अहं+इन्द्रः)अनुसार एक वर्ष में इतने ही दिन होते हैं। चन्द्र के परिभ्रमण 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं। के मण्डल केवल १५ हैं । चन्द्र को भी मेरु की एक प्रदक्षिणा स्वर्गों में जो कल्पवासी देव रहते हैं, उनमें इन्द्र, सामानिक, करने में दो दिन-रात से कुछ अधिक समय लगता है, क्योंकि त्रायस्त्रिश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, उसकी गति सूर्य से मन्द है। इसी कारण से चन्द्र के उदय में आभियोग्य और किल्विर्षिक नाम की दस जातियां हैं। जो सूर्य की अपेक्षा आगा-पीछापन दिखाई देता है । एक चन्द्र अपने सामानिक आदि अन्य देवों के स्वामी होते हैं, उन्हें इन्द्र कहते
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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