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________________ गणितानुयोग : भूमिका ८१ हैं। उनकी आज्ञा सभी देव शिरोधार्य करते हैं और उनका वैभव, 8-सिद्धलोक ऐश्वर्य अन्य सर्व देवों से बहुत बढ़ा-चढ़ा होता है । जो आज्ञा ऊर्ध्वलोक के सबसे अन्त में स्थित सर्वार्थसिद्ध विमान के और ऐश्वर्य को छोड़कर शेष सब बातों में इन्द्र के समान होते अग्रभाग से बारह योजन ऊपर ईषत्प्राग्भारा नाम की पृथ्वी है। हैं उन्हें सामानिक कहते हैं। मंत्री और पुरोहित का काम करने वह पैतालीस लाख योजन विस्तत गोल-आकार वाली है। यह वाले देव त्रायस्त्रिंश कहलाते हैं। उनकी संख्या तैतीस ही होती बीच में आठ योजन मोटी है फिर क्रम से घटती हुई सबसे है, इसलिए ये त्रायस्त्रिश कहे जाते हैं । इन्द्र की सभा या परिषद् अन्तिम प्रदेशों में मक्खी के पंख से भी पतली हो गई है। के सदस्यों को पारिषद कहते हैं । इन्द्र के अंग-रक्षक देव आत्मरक्ष दिगम्बर मतानुसार इषत्प्राग्भार पृथ्वी लोकान्त तक विस्तृत कहलाते हैं । सर्व देवों की रक्षा करने वाले देव लोकपाल कहलाते होने से एक राजू चौड़ी और सात राजु लम्बी है । इसके ठीक होने से हैं । सेना में काम करने वाले देवों को अनीक कहते हैं। साधा मध्य भाग में मनुष्य-क्षेत्र पैतालीस लाख योजन लम्बा-चौड़ा रण प्रजा-स्थानीय देवों को प्रकीर्णक कहते हैं। देवलोक में जो गोल-आकार वाला सिद्धक्षेत्र है। इसका आकार रूप्यमय छत्रादेव सब से हीन पुण्यवाले होते हैं, उन्हें किल्विषिक कहते हैं। कार है । इस सिद्धक्षेत्र या सिद्धलोक में कर्मों का क्षय करके प्रस्तुत ग्रन्थ में भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों का । संसार चक्र से छूटने वाले मुक्त जीव निवास करते हैं और भी वर्णन किया है, उनमें से भवनवासियों में भी उपर्युक्त अनन्त काल तक अपने आत्मिक अव्याबाध निरुपम सुख को दस भेद हैं । किन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिश भोगते रहते हैं। और लोकपाल को छोड़कर शेष आठ भेद होते हैं। व्यन्तर देवों १०-क्षेत्र-माप के आवास रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम-द्वितीय काण्ड में तथा मध्य जैन परम्परा में क्षेत्र-माप इस प्रकार बतलाया गया हैलोकवर्ती असंख्यात द्वीप और समुद्रों में पाये जाते हैं। परमाणु =पुद्गल का सबसे छोटा अविभागी पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग के अन्त में सारस्वत आदि लौकान्तिक अंश देव रहते हैं । ये देवर्षि कहलाते हैं । वे स्वर्ग के देवों में सर्वाधिक अनन्तपरमाणु = १ उस्साहसहिया (उत्संज्ञसंज्ञिका) ज्ञानी होते हैं। वे तीर्थंकरों के अभिनिष्क्रमण कल्याणक के ८ उस्सण्हसण्हिया = १ सहसण्हिया (संज्ञासंज्ञिका) सिवाय अन्य किसी कल्याणक में नहीं आते हैं और वे सभी एक ८ सण्डसण्डिया = १ ऊर्ध्वरेणु भवावतारी होते हैं। ८ ऊर्ध्वरेणु = १ त्रसरेणु भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी इन सभी ८ प्रसरेणु = १ रथरेणु प्रकार के देवों का औपपातिक जन्म होता है। ये अपनी उपपाद ८ रथरेणु = १ देवकुरु के मनुष्य का बालाग्र. शय्या पर जन्म लेने के पश्चात एक अन्तर्मुहूर्त में ही पूर्ण युवा- ८ देवकुरु मनुष्य का बालान = १ हरिवर्ष वस्था को प्राप्त हो जाते हैं। ८ हरिवर्ष = १ हैमवत ८ हैमवत " = १ विदेहक्षेत्रज " ८-तमस्काय ८ विदेहक्षेत्रज " = १ भरतक्षेत्रज " जम्बूद्वीप से तिर्छ असंख्यात द्वीप-समुद्रों को लांघने पर -१ लिक्षा (लीख) अरुणवर-द्वीप की बाहरी वेदिका के अन्त से अरुणोद समुद्र में ८ लिक्षा = १ यूका (जू) बयालीस हजार योजन अवगाहन करके जल के ऊपरी भाग में एक ८ यूका = १ यवमध्य प्रदेश की श्रेणी वाला तमस्काय (अन्धकार-पिण्ड) आरम्भ होता ८ यवमध्य = १ उत्सेधांगुल है। पुनः वह १७२१ योजन ऊपर उठकर विस्तार को प्राप्त = १ पाद होता हुआ सौधर्मादि चार कल्पों को आवृत करके पांचवें ब्रह्म २ पाव = १ वितस्ति लोक में रिष्ट विमान को प्राप्त होकर समाप्त होता है । इस तम- २ वितस्ति = १ रत्नि स्काय का आकार नीचे मल्लकमूल और मुर्गे के पीजरे के समान २ रत्नि = १ कुक्षि (दि. परं० किष्कु), है। इसके लोकतमिस्र आदि १३ नाम हैं और इसकी आठ २ कुक्षि (किष्कु) = १ दण्ड (धनुष) कृष्णराजियाँ बतलायी गयी हैं । (विशेष के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ का २ सहन धनुष = १ गव्यूति तद्विषयक प्रसंग देखिए।) ४ गव्यूति =१ योजन
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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