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सूत्र ६६-६६
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
गणितानुयोग
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वा जाव णाणाविहपंचवण्णेहि तणेहि य मणीहि य उव- का है-आलिंगपुष्कर-मृदंग के मुख पर चढ़े हुए चमड़े के समान सोभिए।
-यावत्-अनेक प्रकार के पंचरंगों तृणों और मणियों से उप
शोभित है । मणीर्ण गंधो वण्णो फासो य नेयव्वो ।
-मणियों के गंध, वर्ण और स्पर्श का वर्णन पूर्व में किये
गये वर्णन के अनुरूप जानना चाहिए।६६. तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए ६६. इन अत्यधिक सम और रमणीय भुमिभागों के मध्यातिमध्य पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियाओ पण्णताओ।
देश भाग-प्रदेश में अलग-अलग मणिपीठिकायें कही गई हैं। ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, अट्ठ वे मणि पीठिकायें लम्बाई-चौड़ाई में एक योजन की और जोयणबाहल्लेणं, सम्वरयणामईओ जाव पडिरूवाओ। मोटाई में आठ योजन की हैं, जो सर्वात्मना रत्नमय स्वच्छ
-यावत्-प्रतिरूप हैं। ६७. तासि ण मणिपेढियाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं सीहासणे पण्णत्ते। ६७. उन प्रत्येक मणिपीठिकाओं के ऊपर एक-एक सिंहासन कहा
गया है। तेसि णं सोहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं इन सिंहासनों का वर्णन इस प्रकार कहा गया है, यथाजहा-तबणिज्जमया चक्कवाला, रययामया सीहा सोवणिया इनका चक्रवाला (पायों के रखने का) अधोवर्ती प्रदेश तपनीय पादा. णाणा मणिमयाई पादपीढगाई, जंबुणयमयाइं गत्ताई, स्वर्ग से बना हुआ है, सिंहों की आकृतियाँ चाँदी से बनी हुई हैं, वइरामया संधी, णाणा मणिमए वेच्चे ।
इनके पाये स्वर्ण के बने हुए हैं, अनेक प्रकार की मणियों से इनके पादपीठ बने हुए हैं, इनकी ईषायें (पाटियाँ) जाम्बूनद (स्वर्ण विशेष) की बनी हुई हैं, इनकी संधियाँ (सांधे, दरारें) वजरत्न से भरी गई हैं, और अनेक मणियों से इनका मध्यभाग बना
हुआ है। तेणं सीहासणा ईहामियउसभ जाव पउमलयभत्तिचित्ता, ये सिंहासन ईहामृग, बैल-यावत्-पद्मलता के चित्रों से ससार सारोबइय-विविह मणिरयणपायपीढा, अच्छरग-मिउम- चित्रित है, इनके पादपीठ श्रेष्ठातिश्रेष्ठ अनेक प्रकार के विविध सरग-नवतयकुसंतलिच्च-सीहकेसर-पच्चुत्थयाभिरामा, उव- रत्नों के बने हुए हैं, इनमें से प्रत्येक पर बिछे हर मद्-सकोमल चिय-खोमदुगुल्लय-पडिच्छ्यणा, सुविरचियरयत्ताणा, रत्तंसुय- आच्छादनक (चादर) ओसीसा और नवीन त्वचा वाले (तत्काल संबया, सुरम्मा, आईणग-रूय-बूर-णवणीय-तूलमउयफासा, उत्पन्न हुए) दर्भ के तृणों से भरे हुए गहे बड़े ही मनमोहक हैं. मउया, पासाईया, जाव पडिरूवा।
तथा आच्छादनकों के ऊपर भी अनेक बेलबूटों वाला दूसरा प्रतिच्छादनक (पलंगपोस) बिछा हुआ है, और उस पलंगपोस पर भी सुन्दर प्रकार से बना हुआ रजत्राण (वस्त्र विशेष, कवर) डाला गया है, ये सभी सिंहासन लालवस्त्र से ढके हुए हैं, अति रमणीय हैं, इनका स्पर्श चममय वस्त्र, कपास, बूर (सेमल की रुई) नवनीत, तूल (आक की रुई) के समान अतिकोमल है, ये
सिंहासन अतिमद्, दर्शनीय-यावत्-प्रतिरूप है। ६८. तेसि णं सीहासणाणं उप्पि पत्तय पत्तेयं विजयदूसं पण्णत्ते । ६८. इन सिहासनी में से प्रत्येक सिंहासन पर अलग-अलग विजय
दृष्य (वस्त्र विशेष) कहा गया है । तेणं विजयसा, सेया, संख-कुन्द-दगरय-अमय-महिय- ये विजय दूष्य शंख-कुन्दपुष्प, जलकण, अमृत, मथे जा रहे फेणपुञ्जसन्निकासा, सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। दूध के फेन पुज के समान श्वेत सर्वात्मना रत्नमय, म्फटिक के
समान स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। ६६. तेसि णं विजयदुसाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया ६६. इन विजय दूष्यों के बहुमध्य देश में अलग-अलग वज्रमय अंकुसा पण्णत्ता।
अंकुश कहे गये हैं।