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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
सूत्र ६१-६५
विजयदाररस णिसीहियाए वणमालापरिवाडीओ- विजयद्वार की नैषिधिकियों में वनमालाओं की पंक्तियाँ६१. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो ६१. विजयद्वार के दोनों और दोनों नैषिधिकाओं में दो-दो दो वणमालापरिवाडीओ पण्णताओ।
वनमालाओं की परिपाटियाँ कही गई हैं। ताओ णं वणमालाओ णाणा दुमलया-किसलय-पल्लवसमा- ये वनलतायें अनेक वृक्षों और लताओं के किसलय-पल्लवों उलाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलसोभंत सस्सिरीयाओ (कोमल पत्तों) से युक्त हैं, भ्रमरों द्वारा भुज्यमान कमलों से पासाईयाओ-जाव-पडिरूवाओ।
सुशोभित हैं, सश्रीक-शोभातिशयवाली दर्शनीय-यावत्-प्रति
रूप हैं। ते पएसे उरालेणं-जाव-मणुणेणं घाण-मण-निवड करेणं ये वनलतायें अपनी उदार-यावत् -मनोज्ञ घ्राण और मन गंधेणं तप्पएसे सवओ समंता आपूरेमाणीओ आपूरेमाणीओ को शांतिप्रद गंध से सर्व दिशाओं और विदिशाओं के प्रदेशों को अईव अईव सिरीए उवसोभेमाणा उबसोभेमाणा चिट्ठन्ति। भरती हुई अपनी शोभा से अत्यन्त शोभायमान होती हुई
—जीवा० प० ३, उ० १, सु० १२६ स्थित है। विजयदारस्स णिसोहियाए पगंठगा--
विजयद्वार की नैषिधिकियों में प्रकण्ठक६२. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहिआए दो ६२. विजयद्वार के उभय पार्श्व में स्थित दोनों नैषिधिकाओं में दो पगंठगा पण्णत्ता।
दो-दो प्रकण्ठक (पीठ विशेष) कहे गये हैं । तेणं पगंठगा चतारि जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, दो जोय- ये प्रकण्ठक चार योजन के लम्बे-चौड़े हैं, तथा इनकी मोटाई णाई बाहल्लेणं सव्व वइरामया अच्छा-जाव पडि रूवा। दो योजन की है, ये सर्वात्मना बज्ररत्नमय, स्वच्छ-यावत
प्रतिरूप है। ६३. तेसि णं पगंठगाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा ६३. उन प्रकण्ठकों के ऊपर अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे पण्णत्ता।
गये हैं। तेणं पासायव.सगा चत्तारि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, दो ये प्रासादावतंसक ऊँचाई में चार योजन ऊँचे और दो योजन जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसिय पहसिया विव के लम्बे-चौड़े हैं, ये समस्त दिशाओं में फैले हुए और हँसते हुए विविहमणिरयणभत्तिचित्ता, वाउद्धय विजयवेजयंती पडाग- से प्रतीत होते हैं, विविध प्रकार की मणियों और रत्नों से बने छत्तातिछत्तकलिया, तुगा, गगणतलमभिलंघमाणसिहरा, हुए चित्रों से चित्रित हैं, जिन पर वायु के संयोग से लहलहाती हुई (गगणतलमणुलिहंतसिहरा) जालंतर-रयण-पंजरुम्मिलितब्व, विजय वैजयन्ती पताकायें जो छत्रातिछत्रों के समान शोभायमान मणि कणग-भूमियागा, वियसिय सयवत्त-पोंडरीय-तिलक-रयण- है, और बहुत ऊँची हैं, जिनके शिखर अपनी ऊँचाई से आकाश द्धचंद चित्ता, णाणामणिमयदामालंकिया, अंतो य बाहिं च का भी उल्लंघन करते हैं, इनकी जालियों में लगे रत्न ऐसे प्रतीत सण्हा, तवणिज्जरुइल वालुया पत्थडा, सुहफासा, सस्सिरीय- होते हैं कि मानो अभी-अभी पिंजड़ों से बाहर निकाले हैं, इनमें रूवा पासाईया-जाव-पडिरूवा।
जो स्तुपिकायें बनी हैं, वे मणियों और स्वर्ण निर्मित हैं. इनके द्वार प्रदेश में विकसित शतपत्रों, पुण्डरीकों और तिलकरत्नों से बने हुए अर्धचन्द्रों के चित्र बने हुए हैं, अनेक मणिमय मालाओं से अलंकृत हैं, भीतर और बाहर से स्निग्ध (चिकने) हैं, इनके भीतर तपनीय स्वर्ण की बालुका बिछी हुई है, इनका स्पर्श सुखद है, रूप
सुहावना है, दर्शनीय है-यावत् --प्रतिरूप है। ६४. तेसि णं पासायवडेंसगाणं उल्लोया पउमलया जाव सामलया ६४. इन प्रासादावतंसकों के ऊपरी भाग (अगासी) में पद्मलता भत्तिचित्ता । सम्व तवणिज्जमया अच्छा-जाव-पडिरूवा । -यावत् -श्यामलता के चित्र बने हुए हैं, वे सब सर्वात्मना
तपनीय, स्वर्णमय, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप हैं। ६५. तेसि णं पासायब.सगाणं पत्तेयं पत्तेयं अंतो बहुसमरम- ६५. इन प्रासादावतंसकों में से प्रत्येक का भीतरी भुमि भाग
णिज्जे भूमिभागे परणत्ते-से जहा णामए, आलिंग पुक्खरेइ अत्यन्त सम एवं रमणीय कहा गया है, जैसे कि वह इस प्रकार