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सूत्र ५५-६०
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
गणितानुयोग
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पसत्थलक्खण, संवेल्लियग्गसिरयाओ ईसि असोगवर पादप- युक्त है, तथा जिनका आगे का भाग मुकुट से ढका हुआ है, ये समुट्ठियाओ, वामहत्थगहियग्ग सालाओ, ईसि अद्धच्छिकडवख- अशोक वृक्ष का कुछ सहारा लिये हुई-सी खड़ी हैं और बायें हाथ विद्धिएहि लूसेमाणीओ इव चक्खुल्लोयणलेसाहि अणमण्णं से इन्होंने अशोक वृक्ष की शाखा के अग्रभाग को ग्रहण कर रखा खिज्जमाणीओ इव।
है, अपने तिरछे कटाक्षों से दर्शकों के मन को मानो चुरा रही हैं, परस्पर एक-दूसरे की ओर देखती हुई ऐसी प्रतीत होती हैं कि मानो एक-दूसरे के सौभाग्य को ईर्ष्या के कारण सहन न करने से
खेद विपन्न-सी हो रही हैं। पढविपरिणामाओ सासयभावमुवगयाओ चंक्षाणणाओ चंद- ये शालभंजिकायें पार्थिव पुद्गलों से बनी हुई हैं, और विलासिणीओ नंदद्धसमनिडालाओ चंदाहियसोमदसणाओ विजयद्वार की तरह शाश्वत हैं, इनका मुख चन्द्रमा के जैसा है, उक्का इव उज्जोयमाणीओ विज्जुघणमरीचि-सूर-दिपंत चन्द्रमंडल की तरह चमकने वाली हैं, इनका ललाट अर्धचन्द्र तेय अहिययर संनिकासाओ, सिंगारागारचारुवेसाओ (अष्टमी के चन्द्रमा) के समान सुशोभित है, चन्द्रमा से भी अधिक पासाइयाओ-जाव-पडिरूवाओ। तेयसा अतीव अतीव सोभे- इनका सौम्यदर्शन है, चन्द्रमा से भी अधिक दर्शनीय है, उल्का माणीओ सोभेमाणीओ चिट्ठन्ति ।
के समान चमकीली है, मेघ-विद्य त की किरणों और दैदीप्यमान -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १२६ अनावृत सूर्य के तेज से भी अधिक इनका प्रकाश है, इनकी
आकृति शृङ्गार प्रधान और वेषभूषा सुहावनी है, अतएव ये प्रासादीय, दर्शनीय-यावत्-प्रतिरूप है, इस तरह ये अपने तेज से अत्यन्त सुशोभित होती हुई (विजय-द्वार की उभय पार्श्ववर्ती
नैषधिकी में) खड़ी हुई है। विजयदारस्स णिसीहियाए जालकडगा
विजय-द्वार की नैषिधिकियों में जालकटक५६. विजयरस णं दारस्स उभयओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो ५६. विजयद्वार की दोनों बाजुओं की दोनों नैषधिकाओं में दो-दो दो जालकडगा पण्णत्ता।
जालकटक (यवनिका-परदा) कहे गये हैं। ते णं जालकडगा सव्व रयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। वे जालकटक सर्वात्मनो रत्नमय स्वच्छ निर्मल-यावत्
-जीवा० प० ३, उ० १, सु० १२६ प्रतिरूप है । विजयवारस्स णिसीहियाए घंटापरिवाडीओ- . विजय-द्वार की नैषिधिकियों में घंटों की पंक्तियाँ६०. विजयरस णं दारस्स उभयओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो ६०. विजयद्वार की दोनों ओर की दोनों नैषिधिकाओं में दो-दो दो घंटापरिवाडीओ पण्णत्ताओ।
घंटाओं की परिपाटी-पंक्ति कही गई है। तासि गं घंटाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा- इन घंटाओं का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है । यथाजंबणयमईओ घंटाओ, वइरामईओ लालाओ, णाणा मणि- ये सब घंटे जंबूनद स्वर्णमय हैं, वजरत्न की इनकी लालायें हैं, अनेक मया घंटा पासगा, तवणिज्जमईओ संकलाओ, रययामईओ मणियों से बने हुए घंटा पार्श्व हैं, जिन सांकलों में ये घंटे लटके रज्जूओ।
हुए हैं वे स्वर्ग की बनी हुई हैं, और चाँदी की बनी हुई डोरियाँ हैं, अर्थात् घंटा बजाने के लिये लालाओं (लोलक-पंडलुम) में जो
डोरियाँ बँधी हुई हैं वे चाँदी की बनी हुई हैं। ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ, मेहस्सराओ, हंसस्सराओ, इन घंटाओं का स्वरनाद ओघस्वर (जलप्रवाह का स्वर) कोंचस्सराओ, णदिस्सराओ, पंदिघोसाओ, सीहस्सराओ, जैसा है, मेघस्वर जैसा, हंसस्वर जैसा, क्रौंचस्वर जैसा, नन्दिस्वर सोहघोसाओ, मंजुस्सराओ, मंजुघोसाओ, सुस्सराओ सुस्सर जैसा, नन्दिघोष जैसा, सिंहगर्जना जैसा, सिंहघोष सा, मंजुस्वर णिग्योसाओ ते पदेसे ओरालेणं मणुष्णेणं कण्ण-मगणिवुइ- जैसा, मंजुघोष जैसा प्रतीत होता है, विशेष और क्या कहा जाये करेण सद्देणं-जाव-चिट्ठन्ति ।।
कि वे सब घंटे अपने सुस्वरों और सुस्वर निर्घोषों से उदार मनोज्ञ, -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२६ कर्ण और मन को तृप्तिकर शब्दों से उस प्रदेश को व्याप्त करते
हुए-यावत्-स्थित हैं।