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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
सूत्र ५४-५८
महया महया गयदंतसमाणा पण्णत्ता समणाउसो!
हे आयुष्मन् श्रमणों! ये नागदन्तक विशाल गजदन्तों के समान
कहे गये हैं। ५५. तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हसुत्तबद्धवग्धारिय मल्लदाम ५५. उन नागदन्तकों के ऊपर अनेक काले डोरे से बंधी हुई अनेक कलावा-जाव-सुकिल्ल सुत्तबद्ध वग्धारियमल्लदामकलावा। पुष्प मालायें लटक रही हैं यावत्-श्वेत सूत्र में बंधी हुई अनेक
पुष्प मालायें लटक रही हैं। तेणं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया, णाणा इन मालाओं के अग्रभाग में स्वर्ण से बने हुए लंबूस (गेंद क मणिरयण-विविधहारहारउवसोभियसमुदया-जाव-सिरीए आकार का आभरण विशेष, झुमका) लटक रहे हैं, और ये सब अईव अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठन्ति । मालायें स्वर्ण के पत्रों से मंडित है, अनेक मणियों, रत्नों, हारों,
और अर्धहारों से ये मालायें विशेष-विशेष रूप से सुशोभित है, -यावत्-अपनी श्री-कांति से विशिष्ट रूप में शोभायमान होती
हुई स्थित है, ५६. तेसि णं नागदंतगाणं उरि अण्णाओ दो दो णागदंत परि- ५६. उन नागदन्तकों के ऊपर भी और दूसरी दो-दो नागदन्तकों वाडिओ पण्णत्ताओ।
की पंक्तियाँ कही गई है। तेसि णं णागदंतगाणं मुत्ताजालंतरूसिया तहेव-जाव-पडिरूवा, उन नागदन्तकों का भी मुक्ताजालों के अन्तर इत्यादि पूर्ववत्
प्रतिरूप पर्यन्त सब वर्णन समझ लेना चाहिये। महया महया गयदंतसमाणा पण्णत्ता समणाउसो।
हे आयुष्मन् श्रमणो ! ये नागदन्तक भी विशाल गजदन्तों के
समान कहे गये हैं। ५७. तेसु णं णागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णत्ता, ५७. उन नागदन्तकों पर बहुत से रत्नमय सीके लटके हुए हैं।
तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वेरूलियामईओ धूव- उन रत्नमय सींकों में वैडूर्य रत्नों से बनी हुई अनेक धूपघडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-ताओ णं धूवघडीओ काला- घटिकाये (धूपदान) रखी हुई कही गई है। यथा-वे धूपगुरु-पवरकुन्दरुक्क-तुरुक्क धूव मघमघंतगंधुद्धयाभिरामाओ घटिकायें काला गुरु, श्रेष्ठ कुन्दरुष्क, तुरुष्क, लोबान की धूपसुगंधवरगंधगंधियाओ गंधवट्टिभूयाओ ओरालेणं मणुण्णेणं विशेष से निकल रही गंध को फैलाती हुई विशेष सुन्दर दिखती घाण-मणणिवुइकरेणं गंधेणं तप्पए से सव्वओ समंता आपूरे- है, सुगन्धित पदार्थों की उत्तम गंध से गंधायमान होने से गंध की माणीओ आपूरेमाणीओ अईव अईव सिरीए उवसोभेमाणा गुटिका जैसे प्रतीत होती है, उदार-श्रेष्ठ, मनोज्ञ गंध से नासिका उवसोभेमाणा चिट्ठन्ति ।
और मन को तृप्ति-शांति प्रदान करने वाली है, और अपनी गंध --जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ से सर्वदिशाओं में उन-उन प्रदेशों को पुनीत करती हुई अतिविशिष्ट
श्री से-यावत्-शोभायमान होती हुई स्थित है। विजयदारस्स णिसीहियाए सालभंजियपरिवाडीओ- विजयद्वार की नैषिधिकियों में सालभंजिकाओं की
पंक्तियाँ५८. विजयस्स णं दारस्स उभयओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो ५८. विजयद्वार के उभयपार्श्व में स्थित उन दोनों निषिधिकाओं में दो सालभंजिया परिवाडीओ पण्णत्ताओ।
दो-दो काष्ठपुतलिकाओं की परिपाटी-क्रमबद्ध पंक्तियाँ कही गई है। ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ सुपयट्ठियाओ सुअलं- वहाँ वे पुतलिकायें क्रीड़ारत हुई जैसी स्थापित की हुई है, कियाओ, णाणागारवसणाओ. णाणा मल्ल-पिणद्धिओ, मुट्ठी- सुन्दर बषभूषा से अलंकृत की गई है, रंग-बिरंगे परिधानो से गेज्झमझाओ आमेलग-जमल जुयलवट्टि अब्भुण्णय-पोण- शृङ्गारित है, अनेक मालायें इन्हें पहनाई गई हैं, कटि प्रदेश रश्चिय-संठिय-पयोहराओ रत्तावंगाप्रो असियकेसीओ, मिदुविसय इतना पतला है कि मुट्ठी में आ सकता है, इनके पयोधर (स्तन)
समश्रेणिक चूचुक युगल से युक्त, कठिन, वृत्ताकार, सामने की ओर उन्नत-तने हुए पुष्ट, रत्युत्पादक है, इनके नेत्र प्रान्त (नेत्रों के किनारे) लालिमायुक्त है, (भ्रमर जैसे) कृष्ण वर्ण, कोमल, विशद-मृणाल तन्तुओं के समान बारीक, प्रशस्त लक्षणों, गुणों से