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________________ सूत्र ५२-५४ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १४३ जातिरसामया वंसा, वसकवेल्लगा य । ज्योतिरसरत्न के ही इसके बांस हैं, और ज्योतिरस रत्न के ही बांसों पर छाये हुए कवेलू हैं । रयतामयी पट्टियाओ। बांसों को जोड़ने वाली पट्टियाँ चाँदी की हैं। जातरूवमयी ओहाडणी। अवघाटिनी (एक प्रकार की ओढनी) स्वर्णमयी है। वइरामयी उवरि पुच्छणी, ऊपर के भाग में बनी पुछणियाँ वज्रनिर्मित है। सबसेतरययमए च्छायणे । इसका छादन सम्पूर्ण रूप से श्वेत है और रत्नों का बना है, अंकमय-कणग-कूड-तवणिज्ज-थूभियाए। इसका कूट प्रधानशिखर अंकरत्न और कनकस्वर्ण का बना हुआ है । तथा स्तूपिकायें-छोटी-छोटी शिखरें तपनीय स्वर्ण की हैं। सेए संखतल-विमलणिम्मल-दधि-घण-गोखीर-फेण-रयय- विमल-निर्मल शंखतल, घनीभुत दही, गाय के दूध का फेन, जिगरप्पगासे तिलग रयणद्धचंदचित्ते । चाँदी के समूह के समान इसका श्वेत-धवल शुभ्र प्रकाश है, तिलक रत्नों से जिस पर अर्धचन्द्रों के चित्र बने हुए हैं। णाणा मणिमयदामालंकिए, अंतो य, बहिं च सण्हे तवणिज्ज- अनेक मणिमय मालाओं से जो अलंकृत हो रहा है, भीतर रूइल-वालुया-पत्थडे, सुहप्फासे सस्सिरीयरूवे पासाईए-जाव- और बाहर में जो श्लक्ष्ण (अत्यन्त सूक्ष्म) पुद्गलों के स्कन्धों से पडिरूवे। -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२६ निर्माणित है, दीप्तमान तपनीय स्वर्ण की वालुका जिसमें विछायी हुई है, जिसका स्पर्श सुखप्रद है, जिसका रूप सुहावना दर्शनीय यावत्-प्रतिरूप है। विजयदारस्स णिसीहियाए चंदणकलसपरिवाडीओ-- विजयद्वार की नैषिधिकियों में चन्दनकलशों की पंक्तियाँ'५३. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो ५३. विजय द्वार की दोनों तरफ आजू-बाजू में दो नैषिधिकियाँ दो चंदणकलसपरिवाडीओ, पण्णत्ताओ । बैठने के स्थान (चौकियाँ) हैं, जिन पर दो-दो चन्दन के कलशों की पंक्तियाँ कही गई हैं। तेणं चंदणकलसा, बरकमलपइट्ठाणा, सुरभिवरवारिपडि- ये चन्दनकलश श्रेष्ठ कमलों पर रखे हुए हैं, श्रेष्ठ-गुद्ध पुण्णा, चंदणकयचच्चागा, आबद्धकंठेगुणा. पउमुप्पल- सुगन्धित जल से भरे हुए हैं, चन्दन से जो चचित है अर्थात् थापे पिहाणा, सव्वरयणामया, अच्छा-जाव-पडिरूवा । लगे हैं, और जिनके कंठ में मौली बाँधी गयी है। जिनके मुख पद्मकमल के ढक्कनों से ढके हुए हैं, तथा सर्वात्मना रत्नों से जटित, स्फटिकमणि के समान स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। महया महया महिंदकुम्भसमाणा पण्णत्ता समगाउसो। हे आयुष्मान् श्रमणो ! ये चन्दनकलश विशाल बड़े बड़े -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२६ महेन्द्रकुम्भ के समान कहे गये हैं। विजयदारस्स णिसोहियाए नागदंतपरिवाडीओ- विजयद्वार की नैषिधिकियों में नागदन्तकों की पंक्तियाँ५४. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो दो ५४. विजयद्वार के उभय पार्यो की दोनों निषधिकाओं में दो-दो णागदंतपरिवाडीओ पण्णत्ताओ। नागदन्तकों की पंक्तियाँ कही गई है । तेणं णागदंतगा मुत्ताजालंतरूसिअ-हेमजाल-गवक्खजाल- ये सब नागदन्तक चारों ओर से मुक्ताजालों के अन्दर खिखिणीघंटाजालपरिविवत्ता, अब्भुग्गया, अभिणिसिट्ठा तिरियं लटकती हुई सुवर्णमय मालाओं, गवाक्ष आकृति वाले रत्नों की सुसंपगहिया, अहे पण्णगद्धरूवा, पण्णगद्धसंठाणसंठिया, सव- मालाओं से और छोटी-छोटी घण्टिकाओं से घिरे हुए है। आगे रयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। के भाग में कुछ ऊँचे उठे हुए हैं, और दीवाल में अच्छी तरह से ठुके हुए हैं, कुछ तिर छेपन को लिये स्थित है, अधोभाग में ये सर्प के अर्धभाग जैसे आकार वाले हैं, और अर्ध साकार रूप में स्थापित है, सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-निर्मल-यावत्-प्रतिरूप है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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