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________________ ५४ लोक-प्रज्ञप्ति उ० गोपमा ! असंखेज्जाई जोवणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्त । अधोलोक एवं जाव असत्तमाए । वरं :- जोसे ज बाहल्लं तेण घणोदधी संबंधेतव्वो बुद्धीए । सक्करण्यभाए अणुसारेण घणोदहिसहिताणं इमं पमाणं । mm तच्चाए णं भंते! (वालुयप्पभाए) पुढबीए अडवालीसुत्तरं जोयणस्यसहस्सं, पंकप्पभाए पुढवीए चत्तालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं धूमप्पभाए पुडवीए अतीसुत्तरं जोयण सबसहस्स 1 तमाए पुढवीए छत्तीसुत्तरं जोयणसय सहस्सं आहे सत्तमाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तरं जोयणसयसहस्स, ' एवं उवासंतरस्स वि जाव अहेसत्तमाए, ' प० आहे सताए पं चते । पुढवीए उवरिल्लाओं परि मंताओ उवासंतरस्स हेट्ठिले चरिमंते केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्त ? उ० गोपमा ! असंखेन्जाई जोयणसपसहस्साई अवाहाए अंतरे पगले ? - जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७६ । ११७ बोच्चाएपुढबीए बहुमजावेसभागाओ दोच्यस्स घणो बहिस्सा ले चरिमंते – एसगं छससीइजोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्त । - - सम० ८६, सु० ३ । १. २. ११८ हट्टी पुदवीए बहुमज्शदेस भागाज छस्स घणोदहिस्स हेट्ठिले चरिमंते - एसणं एगूणासीतिजोयणसहस्साइं अबाहा अंतरे पण्णत्त । -सम० ७६, सु० ३ । सूत्र ११६-११८ उ० गौतम ! असंख्य लाख योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है । इस प्रकार यावत् नीचे सातवीं (पृथ्वी पर्यन्त ) है । विशेष - जिस (पृथ्वी) का जो बाहल्य- मोटाई है उसको घनोदधि के साथ बुद्धि से जोड़ना चाहिए । शर्कराप्रभा के अनुसार धनोदधि सहित यह प्रमाण है भगवन् ! तृतीया (वालुकाप्रभा) पृथ्वी में एक लाख अन्तालीस हजार योजन (का अवाधा अन्तर है।) पंकप्रभा पृथ्वी में एकलाख चालीस हजार योजन (का अबाधा अन्तर है ।) धूमप्रभा पृथ्वी में एक लाख अडतीस हजार योजन ( का अवाधा अन्तर है। तमा पृथ्वी में एक लाख छत्तीस हजार योजन (का अबाधा अन्तर है ।) नीचे सातवीं पृथ्वी में एक लाख अट्ठाईस हजार योजन ( का अबाधा अन्तर है ।) [यह अन्तर प्रत्येक पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से मनोदधि के नीचे के चरमान्त का है।] इसीप्रकार अवकाशान्तर भी यावत् नीचे सातवीं (पृथ्वी) पर्यन्त है। प्र० भगवन् ! नीचे सातवीं पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से अवकाशान्तर के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? उ० गौतम ! असंख्य लाख योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है । ११७ द्वितीया पृथ्वी के ठीक मध्य सभाग से द्वितीय धनोदधि के नीचे का चरमान्त का अबाधा अन्तर छियासी हजार योजन का कहा गया है । आ० स० प्र० प्रति में इसके आगे "जाव अधे सत्तमाए" ऐसा पाठ है । आ० स० प्र० जीवाभिगम में यह पंक्ति पत्र १०० के पूर्व भाग की नीचे से पाँचवीं पंक्ति में हैं किन्तु यहाँ प्रथम पंक्ति के अन्त में आधे सत्तमाए पु० अट्ठावीस जोपणसमसहस्व" देना उचित समझा है। ३. आ० स० प्र० जीवाभिगम की प्रति में "एस णं भंते! पुढवीए" ऐसा पाठ है जो शुद्ध प्रतीत नहीं होती है। ११८ छड्डी पृथ्वी के ठीक मध्य सभाग से छठे धनोदधि के चरमान्त का अबाधा अन्तर गुणासी हजार योजन कहा गया है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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