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________________ सूत्र ११६-१२० अधोलोक गणितानुयोग ५५ पुढविचरिमंतेसु जीवा-ऽजीवं तद्देसपएसा य- पथ्वियों के चरमान्तों में जीव, अजीव और उनके देश प्रदेश११६:५० इमीसे णं भंते ! रयणण्पमाए पुढवीए पुरथिमिल्ले ११६ :प्र. भगवन् ! क्या रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वी चरमान्त में चरिमंते कि जीवा जाव अजीवपदेसा? जीव हैं यावत् अजीव के प्रदेश है ? । उ० गोयमा ! नो जीवा एवं जहेव लोगस्स तहेव उ० गौतम ! जीव नहीं हैं—जिसप्रकार लोक के चरमान्त चत्तारि वि चरिमंता जाव उत्तरिल्ले। हैं उसीप्रकार (रत्नप्रभा के) चारों चरमान्त हैं यावत् उत्तर का चरमान्त है। उवरिल्ले जहा बसमसए विमला दिसा तहेव ऊपर का (चरमान्त) सम्पूर्ण दशम शतक में (कथित) निरवसेसं। विमला दिशा जैसा है। हेट्रिल्ले चरिमंते जहेव लोगस्स हेदिल्ले चरिमंते नीचे का चरमान्त लोक के नीचे के चरमान्त जैसा तहेव; नवरं :-देसे पंचेंविएसु तियभंगो, सेसं है। विशेष-पंचेन्द्रियों में देस (सम्बन्धी) तीन भांगे हैं । तं चेव। शेष उसी प्रकार है। एवं जहा रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया जिस प्रकार रत्नप्रभा के चार चरमान्त कहे हैं। एवं सक्करप्पभाए वि। उसीप्रकार शर्कराप्रभा के भी हैं। उवरिम-हेट्ठिल्ला जहा रयणप्पभाए हेट्ठिल्ले। ऊपर और नीचे के (चरमान्त) रत्नप्रभा के नीचे के (चरमान्त) जैसे हैं। एवं जाव अहेसत्तमाए। उसी प्रकार यावत् नीचे सातवीं के (चरमान्त) हैं। -भग० स०१६, उ०८, सु० ७-६ । पुढवीसु चरिमाइं पृथ्वियों के चरमादि१२०:५० इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी कि १२० :प्र० हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या (१) चरिमा (१) चरम (एक वचन-पर्यन्तवर्ती) है ? (२) अचरिमा (२) अचरम (एक वचन-मध्यवर्ती) है ? (३) चरिमाई (३) चरम (बहुवचन-पर्यन्तवर्ती) है ? (४) अचरिमाइं (४) अचरम (बहुवचन-मध्यवर्ती) है ? (५) चरिमंतपदेसा (५) चरमान्तप्रदेश (बहुवचन-पर्यन्तवर्ती) हैं ? (६) अचरिमंतपदेसा? (६) अचरमान्त प्रदेश (बहुवचन मध्यवर्ती) हैं ? उ० गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी उ. हे गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी नो चरिमा (१) चरम (एकवचन-पर्यन्तवर्ती) नहीं हैं । नो अचरिमा, (२) अचरम (एकवचन-मध्यवर्ती) नहीं हैं। नो चरिमाइं, (३) चरम (बहुवचन-पर्यन्तवर्ती) नहीं हैं। नो अचरिमाइं, (४) अचरम (बहुवचन-मध्यवर्ती) नहीं हैं। नो चरिमंतपदेसा, (५) चरमान्तप्रदेश (बहुवचन-पर्यन्तवर्ती) नहीं हैं। नो अचरिमंतपदेसा। (६) अचरमान्त प्रदेश (बहुवचन-मध्यवर्ती) नहीं हैं। णियमा-अचरिमं च, चरिमाणि य, किन्तु निश्चितरूप से अचरम है। (क्योंकि पर्यन्तवर्ती चरमखण्डों की अपेक्षा से रत्नप्रभा का एक बहुत बड़ा खण्ड अचरम (मध्य में) है।) चरम (बहुवचन-मध्यवर्ती) हैं-(क्यों कि रत्नप्रभा के पर्यन्तवर्ती खण्ड जो लोकान्तरूप हैं वे अनेक हैं।) चरिमंतपदेसा य, चरमान्तप्रदेश हैं-(लोकान्तरूप प्रदेश-चरमान्तप्रदेश हैं)। अचरिमंतपदेसा य । अचरमान्त प्रदेश हैं-(चरमान्त प्रदेशों के मध्यवर्ती सभी प्रदेश अचरमान्त प्रदेश हैं।) एवं जाव अहेसत्तमा पुढवी। इस प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त हैं। -पण्ण पद० १०, सु० ७७५-७७६ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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