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सूत्र ११६
अधोलोक
गणितानुयोग
५३
उ० गोयमा ! बत्तीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे
पण्णते।' प० दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ
घणोदहिस्स हेट्ठिले चरिमंते-एसणं केवइयं अबाहाए
अंतरे पण्णते? उ० गोयमा ! बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे
पण्णत्ते। प० दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ
घणवातस्स उवरिल्ले चरिमंते-एसणं केवइयं अबा
हाए अंतरे पण्णते? उ० गोयमा ! बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे
पण्णत्ते। प० दोच्चाए गं मंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ
घणवातस्स हेट्टिले चरिमंते-एसणं केवइयं अबाहाए
अंतरे पण्णत्ते? उ० गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई अबाहाए
अंतरे पण्णत्ते। प० दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ
तणुवातस्स उवरिल्ले चरिमंते-एसणं केवइए अबा
हाए अंतरे पण्णत्त ? उ० गोयमा | असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई अबाहाए
अंतरे पण्णते। प० दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ
तणुवातस्स हेट्रिले चरिमंते-एसणं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्त ?
उ० गौतम ! एक लाख बत्तीस हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है।
प्र० भगवन् ! द्वितीया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनोदधि के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ?
उ० गौतम ! एक लाख बावन हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है।
प्र० भगवन् ! द्वितीया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनवात के ऊपर के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है?
उ० गौतम ! एक लाख बावन हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है।
प्र० भगवन् ! द्विताया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनवात के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है?
उ० गौतम ! असंख्य लाख योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है ?
प्र. भगवन् ! द्वितीया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से तनुवात के ऊपर के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ?
उ० गौतम ! असंख्य लाख योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है।
प्र० भगवन् ! द्वितीया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से तनुवात के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है?
टिप्पणी १. आगमोदय समिति से प्रकाशित जीवाभिगम सूत्र की प्रति के पत्रांक ६६ और १०० में प्रतिपत्ति ३, उद्देशक १ का
सूत्र ७६ है। (१) इसमें नरकों के चरमान्तों का अन्तर, (२) रत्नप्रभा के चरमान्तों से काण्डों का अन्तर, (३) नरकों के चरमान्तों से घनोदधि, धनवात, तनुवात और अवकाशान्तरों का अन्तर प्रतिपादित हैं। इस सूत्र का मूलपाठ संक्षिप्त वाचना का है किन्तु अव्यवस्थित है, इसलिए यहाँ टीका के अनुसार मूलपाठ व्यवस्थित किया गया है। यहाँ शर्कराप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनोदधि को ऊपर के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना है ? यह मुद्रित आ० स० की प्रति के मूलपाठ से स्पष्ट नहीं होता है । देखिये मुद्रित प्रति का मूलपाठ-"सक्करप्प० पु. उवरि...." अतः इस अंश की मल पाठ की टीका के अनुसार यहाँ मूलपाठ व्यवस्थित किया गया-देखिये टीका का अंश: नोनीत
रुपरितने चरमान्ते पृष्ठे एतदेव निर्वचनं द्वात्रिशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् । २. घनवात और तनुवात से सम्बन्धित मूलपाठ भी यहाँ व्यवस्थित किया है । देखिये मुद्रित प्रति का मूलपाठ
"घणवातस्स असंखज्जाइं जोयणसहस्साइं पण्णत्ताई, एवं जाव उवासंतरस्स वि जावऽधे सत्तमाए।" इस पाठ में घनवात के नीचे के चरमान्त का अन्तर ही निर्दिष्ट है। धनवात के ऊपर के चरमान्त का और तनुवात के ऊपर नीचे के चरमान्त का अन्तर 'जाव' संकेत से ग्रहण करने की सूचना है, किन्तु किस पृथ्वी के चरमान्तों के अनुसार ग्रहण करना यह सूचना नहीं है अतः टीका के आधार से मूलपाठ व्यवस्थित किया गया है-देखिये मुद्रित प्रति की टीका का अंश"घनवातस्याधस्तनचरमान्तपृच्छायां तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तकचरमान्तपच्छासु च यथा रत्नप्रभायां तथा वक्तव्यम्, असंख्येयानि योजनशतसहस्राण्यबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति भावः ।