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________________ सूत्र २६९-३०३ तिर्यक् लोक : हरिवर्ष गणितानुयोग २११ समुदस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हिरण्णवए समुद्र से पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में, जम्बूद्वीप वासे पण्णत्ते। नामक द्वीप में हैरण्यवत वर्ष कहा गया है। एवं जह चेव हेमवयं तह चेव हेरण्णवयं पि भाणियन्वं। जैसा हैमवतवर्ष का कथन किया है वैसा ही हैरण्यवतवर्ष णवरं जीवा दाहिणेणं, उत्तरेणं धणं अवसिद्रुतं चेवत्ति।' भी कह लेना चाहिये । विशेष यह है कि इसकी जीवा दक्षिण में -जंबु• वक्ख० ४, सु० १११ और धनुपृष्ठ उत्तर में है । शेष कथन वही है। हेरण्णवयवासस्स णामहेऊ हैरण्यवतवर्ष के नाम का हेतु३००.५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-हेरण्णवएवासे ३००. प्र०-भगवन् ! हैरण्यवतवर्ष को हैरण्यवतवर्ष क्यों हेरण्णवएवासे ? कहते हैं ? उ०-गोयमा ! हेरण्णवए णं वासे रुप्पी-सिहरीहिं वासहर- उ०-गौतम ! हेरण्यवतवर्ष रुक्मि और शिखरी नामक पव्वएहि दुहओसमवगूढे, णिच्चं हिरण्णं दलइ, णिच्चं वर्षधर पर्वतों से दोनों ओर से समवगूढ है अर्थात् संश्लिष्ट है। हिरणं मुचइ, णिच्चं हिरणं पगासइ । यह नित्य हिरण्य को प्रदान करता है। नित्य हिरण्य को त्यागता है तथा नित्य हिरण्य जैसा प्रकाशित होता है । हेरण्णवए अ इत्थ देवे महिड्ढीए-जाव-पलिओवमट्टिईए यहाँ महद्धिक-यावत्-पल्योपम की स्थितिवाला हैरण्यवत परिवसइ। नामक देव निवास करता है। से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ–'हेरण्णवएवासे।" इस कारण गौतम ! इसका नाम हैरण्यवतवर्ष, हैरण्यवतवर्ष -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ कहा गया है। हरिवासस्स अवठिई पमाणं च हरिवर्ष का अवस्थिति और प्रमाणकहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे ३०१. भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में हरिवर्ष नामक वर्ष कहाँ पण्णत्ते ? कहा गया है ? उ.-गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स दविखणेणं, महा- उ०-गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत से दक्षिण में, महाहिम हिमवंतवासहरपब्वयस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस्स वन्त वर्षधर पर्वत से उत्तर में, पूर्वी लवणसमृद्र से पश्चिम में, पस्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप में णं जंबहीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते। हरिवर्ष नामक वर्ष कहा गया है। जाव-पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं यह-यावत्-पश्चिम की ओर से पश्चिमी लवणसमुद्र से स्पष्ट लवण समुद्द पुढे, अट्ठजोअणसहस्साई चत्तारि अ एगवीसे जोयण सए एगं च एगूणचीसहभागे जोअणस्स है। इसकी चौड़ाई ८४२११. योजन की है। विक्खंभेणं । १२.तरस बाहा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं तेरस जोअणसहस्साई, ३०२. उसकी बाह पूर्व-पश्चिम में तिष्णि अ एगस? जोअणसए, छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स, अद्धभागं च आयामेणंति । __१३३६१ योजन लम्बी है। ३०३. तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया, दुहा लवण समुह ३०३. उसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बी और पटा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा दोनों ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है। पूर्व की ओर पूर्वी लवणपच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमु पुट्ठा समुद्र से स्पृष्ट है और पश्चिम की ओर पश्चिम की ओर पश्चिमी १ (क) सम. ६७ सु. २। (ख) सम. ३७ सु. २। (ग) सम. ३८ सु. २ ।.... २ हरिवास-रम्मयाणं वासा अट्ठजोयणसहस्साई साइरेगाई वित्थरेणं पण्णत्ता । -सम. सु. १२१
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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