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सूत्र १५७-१५८
अधोलोक
गणितानुयोग
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असुरकुमारठाण-परूवणं
असुरकुमारों के स्थान का प्ररूपण१५७ : भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, १५७ : भगवन् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को भंते ! (ऐसा नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं बयासी
कहकर) वन्दना नमस्कार किया और वन्दना नमस्कार करके
इस प्रकार कहाप० अत्यि णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे प्र. "भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे असुरकुमार देव __असुरकुमारा देवा परिवसति ?
रहते हैं ?" उ० गोयमा ! नो इण? सम? ।
उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं-अर्थात् इस प्रकार
नहीं हैं। एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए।
इस प्रकार यावत् नीचे सातवीं पृथ्वी (पर्यन्त) है। सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव....
सौधर्मकल्प के नीचे यावत्.... प० अस्थि णं भंते ! ईसिपन्भाराए पुढवीए अहे असुर- प्र. भगवन् ! ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे असुरकुमार देव कुमारा देवा परिवसंति ?
रहते हैं ? उ० गोयमा ! नो इण? सम? ।
उ० गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प० से कहिं ? णं भंते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति ?
प्र. भगवन् ! वे असुरकुमार देव फिर कहाँ रहते हैं। उ. गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी- उ. गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस
उत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए–एवं असुर- रत्नप्रभा पृथ्वी में-असुरकुमार देव सम्बन्धी वक्तव्यता कमारदेववत्तव्वया जाव दिव्वाइ भोगभोगाइं यावत् दिव्य भोगोपभोग भोगते हुए रहते हैं। भंजमाणा विहरंति।
-भग० स० ३, उ० २, सु० ३ (१-२) ४ ।
असुरकुमारठाणाई
असुरकुमारों के स्थान१५८:५० [१] कहि णं भंते ! असुकुमाराणं देवाणं पज्जत्ता- १५८ : प्र० [१] हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त असुरकुमार पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता?
देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं भंते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति? [२] हे भगवन् ! असुरकुमार देव कहाँ रहते हैं। उ० [१] गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर उ० [१] गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई
जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग जोयण- वाली रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन सहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं करने पर और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख वज्जेत्ता, मज्झे अट्टहत्तरे जोयणसयसहस्से- अठहत्तर योजन प्रमाण मध्य भाग में असुरकुमार देवों के चौंसठ एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोवट्टि भवणा- लाख भवनावास हैं ऐसा कहा गया है।
वाससयसहस्सा हवंतीतिमक्खायं ।' ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरसा (जाव) पासा- ये भवन बाहर से वृत्ताकार हैं, अन्दर से चतुष्कोण हैं, यावत्
या दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा-एत्थ णं असुर- प्रसन्नता जनक हैं, दर्शनीय हैं, सुन्दर हैं, समान सौन्दर्य वाले हैं, कमाराणं देवाण पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। इन भवनों में पर्याप्त तथा अपर्याप्त असुरकुमार देवों के स्थान
कहे गये हैं।
१.
क-सम० ६४, सु०२। ख-भग० स० १३, उ० २, सु० ३ । ग-भग० स० १६, उ०७, सु०१।