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________________ सूत्र ६४१-६४३ तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३४३ तं जहा–१. काले, २. महाकाले, यथा-(१) काल, (२) महाकाल, ३. वेलंबे, ४. पमंजणे ।' (३) वेलम्ब और (४) प्रभंजन । ६४१. तेसि गं महापायालाणं तओ तिभागा पण्णता, ६४१. उन महापातालों के तीन विभाग कहे गये हैं। तं जहा–हेदिले तिभागे, मज्झिल्ले तिभागे, उवरिमे यथा-(१) नीचे का विभाग, (२) मध्य का विभाग, (३) तिभागे। ऊपर का विभाग। ते णं तिभागा तेत्तीसं जोयणसहस्सा तिण्णि य तेत्तीसं ये तीन भाग तेतीस हजार, तीन सौ, तेतीस योजन और जोयणसतं जोयणतिभागं च बाहल्लेणं । एक योजन के तीन भाग जितने मोटे हैं। तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे-एत्थ णं वाउकाओ उनमें से जो नीचे का त्रिभाग है उसमें वायुकाय है। संचिट्ठति । तत्थ णं जे से मज्झिल्ले तिभागे-एत्थ णं वाउकाए य, उनमें से जो मध्य का त्रिभाग है उसमें वायुकाय और आउकाए य संचिट्ठति । अप्काय है। तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे-एत्थ णं आउकाए उनमें से जो ऊपर का विभाग है उसमें अप्काय है । संचिट्ठति । ६४२. अदुत्तरं च गं गोयमा ! लवणसमुद्दे तत्थ तत्थ देसे बहवे ६४२. गौतम ! इनके अतिरिक्त लवणसमुद्र में जहाँ तहाँ छोटे खुड्डालिजरसंठाणसंठिया खुड्डुपायालकलसा पण्णत्ता। कलश के आकार के अनेक छोटे पाताल कलश कहे गये हैं। ते णं खुड्डा पाताला एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, प्रत्येक छोटे पाताल कलश एक हजार योजन के गहरे हैं । मूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं, प्रत्येक (छोटे पाताल कलश) का मूल (पैदा) एक सौ योजन चौड़ा है। मज्झे एगदेसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं, प्रत्येक (छोटे पाताल कलश) का मध्य एक एक प्रदेश की श्रेणी से (बढ़ते बढ़ते) एक हजार योजन का चौड़ा है। उप्पि मुहमूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं । प्रत्येक (छोटे पाताल कलश) के ऊपर के मुख का मूल (एक एक प्रदेश की श्रेणी कम होते होते) एक सौ एक सौ योजन का चौड़ा है। ६४३. तेसि णं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दस जोयणाई ६४३. उन छोटे पातालकलशों की दिवाले सर्वत्र समान हैं, वे बाहल्लेणं पण्णत्ता व्ववइरामया अच्छा-जाव-पडिहवा ।। दस योजन की मोटी कही गई हैं। सब वज्रमय हैं, स्वच्छ हैं यावत्-मनोहर हैं। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य अवक्कमंति-जाव-उव- उनमें से अनेक जीव और पुद्गल निकलते हैं यावत्चयंति । उपचय को प्राप्त होते हैं। सासया गं ते कुड्डा दम्वट्ठाए। उन (छोटे पातालकलशों) की दिवाले द्रव्यों की अपेक्षा से शाश्वत हैं। वण्णपज्जवेहि-जाव-फासपज्जवेहि असासया । वर्णपर्यायों की अपेक्षा से-यावत् - स्पर्शपर्यायों की अपेक्षा से अशाश्वत हैं। पत्तेयं पत्तेयं अद्धपलिओवमद्वितीताहि देवताहि परिग्गहिया। प्रत्येक (क्षुद्र पाताल कलश) अर्धपल्योपम की स्थिति वाली देवियों से परिगृहीत हैं। १ ठाणं ४, उ०२, सु० ३०५ २ ठाणं १०, सु० ७२० ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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