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________________ ३४२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६३६-६४० उ०-गोयमा ! लवणस्स णं समुद्दस्स उभओ पासि पंचाण- उ०-गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों ओर पंचानवे पंचानवे उति पंचाणउति पदेसेगंता सोलसपएसे उस्सेहपरि- प्रदेश जाने पर सोलह प्रदेशों की शिखावृद्धि कही गई है। वुड्ढीए पण्णत्ते । गोयमा ! लवणस्स णं समुद्दस्स एएणेव कमेणं-जाव- गौतम ! इसी क्रम से-यावत्-पंचानवे पंचानवे हजार पंचाणउति पंचाणउति जोयणसहस्साई गंता सोलस- योजन की लवणसमुद्र की शिखावृद्धि कही गई । जोयणसहस्साई उस्सेहपरिवुड्ढीए पण्णत्ते।' -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७० लवणसम दवुड्ढी हाणि-कारणाई लवणसमुद्र की वृद्धि और हानि के कारण६४०.५०-कम्हा गं भंते ! लवणसमुद्दे चाउद्दसट्ठमुद्दिद्वपुण्णिमा- ६४०. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र (का पानी) चतुर्दशी, अष्टमी, सिणीसु अतिरेगं अतिरेगं वड्ढति वा, हायति वा? अमावस्या और पूर्णिमा को किस कारण से अधिकाधिक बढ़ता और घटता है ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चउद्दिसि बाहि- उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के चारों ओर की रिल्लाओ वेइयंताओ लवणसमुदं पंचाणउति पंचाण- बाहरी वेदिकाओं के अन्त से लवणसमुद्र में पंचानवे पंचानवे उति जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थ णं चत्तारि हजार योजन जाने पर महाआलिंजर (विशालकुम्भ) के आकार महालिंजरसंठाणसंठिया महइमहालया महापायाला के चार बड़े-बड़े महापाताल (कलश) कहे गये हैं । पण्णत्ता, तं जहा–१. वलयामुहे, २. केतूए, यथा-(१) वलयामुख, (२) केतुक, ३. जूवे, ४. ईसरे। (३) यूप, और (४) ईश्वर । तेणं महापायाला एगमेगं जोयणसयसहस्सं उव्वेहेणं ।। प्रत्येक महापाताल (कलश) एक लाख योजन गहरा है । मूले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं, मूल दस हजार योजन चौड़ा है। मज्झे एगपदेसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसतसहस्सं एक एक प्रदेश की श्रेणी से (बढ़ते बढ़ते) मध्य में एक लाख विक्खंभेणं, योजन का चौड़ा है। उरि मुहमूले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं, ऊपर के मुख का मूल (एक एक प्रदेश की श्रेणी कम होते होते) दस हजार योजन चौड़ा है। तेसि णं महापायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दसजोयण- उन महापाताल कलशों की दिवाले सर्वत्र समान हैं, वे दस सतबाहल्ला पण्णत्ता, सव्ववइरामया अच्छा-जाव- हजार योजन मोटी कही गई हैं। सब वज्रमय हैं स्वच्छ हैंपडिरूवा । यावत्-मनोहर हैं। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य अवक्कमंति, विउक्क- उन (दिवारों) में से अनेक जीव और पुद्गल निकलते हैं.. मंति, चयंति, उवचयंति । उत्पन्न होते हैं, चय और उपचय को प्राप्त होते हैं । सासया णं ते कुड्डा दन्वट्ठयाए । वे दिवारें द्रव्यों की अपेक्षा से शाश्वत हैं । पणज्जवेडिगंधपज्जवेहि रसपज्जवेहि फासपज्जवेहि वर्णपर्यायों, गंधपर्यायों, रसपर्यायों और स्पर्शपर्यायों की अपेक्षा असासया। से अशाश्वत हैं। तत्थ गं चत्तारि देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठि- वहाँ महधिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले चार देव, तीया परिवसंति, रहते हैं। १ सम. १६, सु. ७ । २ (क) ठाणं०४, उ० २, सु० ३०५। ३ ठाणं १०, सु० ७२० । (ख) सम० ६५, सु०२। ४ ठाणं १०, सु०७२० ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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