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________________ ३४४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६४४-६४६ ६४४. तेसि णं खुड़गपातालाणं ततो तिभागा पण्णत्ता, तं जहा- ६४४. उन क्षुद्रपाताल कलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं। हेट्ठिल्ले तिभागे, मज्झिल्ले तिभागे, उवरिल्ले तिभागे। यथा-(१) नीचे का त्रिभाग, (२) मध्य का त्रिभाग, (३) ऊपर का त्रिभाग। ते णं तिभागा तिणि तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागं च ये त्रिभाग तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीन बाहल्लेणं पण्णत्ते। भाग जितने मोटे कहे गये हैं । तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे-एत्थ णं वाउकाओ उनमें से जो नीचे का त्रिभाग है-उसमें वायुकाय है । संचिट्ठति, तत्थ णं जे से मझिल्ले तिभागे-एत्थ णं वाउकाए य उनमें से जो मध्य का त्रिभाग है-उसमें वायुकाय और आउकाए य संचिट्ठति, अप्काय है। तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे-एत्थ णं आउकाए उनमें से जो ऊपर का त्रिभाग है-उसमें अप्काय है। संचिट्ठति, एवामेव सपुब्वावरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ठ इस प्रकार सब मिलाकर लवणसमुद्र में सात हजार आठ सौ, य चुलसीता पातालसता भवंतीतिमक्खाया। चौरासी (क्षुद्र) पाताल (कलश) हैं, ऐसा कहा गया है। ६४५. तेसि णं महापायालाणं खुड्डगपायालाण य हेटिममज्झिमिल्लेसु ६४५. उन महापाताल कलशों के और क्षुद्रपाताल कलशों के तिभागेसु बहवे ओरालावाया संसेयंति समुच्छिमंति एयंति नीचे के तथा मध्य के विभागों में उदार वायुकाय (के जीव) चलंति कंपति खुम्भंति घट्टन्ति फंदंति तं तं भावं परिणमंति, उत्पन्न होते हैं, सम्मूछित होते हैं, हिलते हैं, चलते हैं, कम्पित तया णं से उदए उण्णाभिज्जति । होते हैं, क्षुब्ध होते हैं, टकराते हैं, घर्षण को प्राप्त होते हैं तथा उन उन भावों में परिणत होते हैं, तब वहाँ का पानी ऊपर की ओर उछलता है। जया गं तेसि महापायालाणं खुड्डगपायालाण य हेढिल्ल- जब उन महापाताल कलशों और क्षुद्रपाताल कलशों के नीचे मज्झिल्लेसु तिभागेसु नो बहवे ओराला वाया संसेयंति-जाव- के तथा मध्य के विभागों में उदार अनेक वायुकाय के जीव फंदति, तं तं भावं परिणमंति तया णं से उदए नो उन्ना- उत्पन्न नहीं होते हैं यावत्-घर्षण को प्राप्त नहीं होते हैं और मिज्जइ। उन उन भावों को परिणत नहीं होते है तब वहाँ का पानी ऊँचा नहीं उछलता है। अंतरा वियणं ते वायं उदीरेंति, अंतरा वि य णं से उदगे अतिरिक्त समय में भी जब वायुकाय की उदीरणा होती है उण्णामिज्जइ। __तो पानी ऊपर की ओर उछलता है। ___ अंतरा विय ते वाया नो उदीरंति, अंतरा वि य णं ते उदगे और जब वायुकाय की उदीरणा नहीं होती है तो पानी नो उण्णामिज्जइ। ऊपर की ओर नहीं उछलता है । ___ एवं खलु गोयमा ! लवणसमुद्दे चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमा- इस प्रकार गौतम ! लवणसमुद्र (का पानी) चतुर्दशी, अष्टमी, सिणीसु अइरेगं अइरेगं वड्ढति वा, हायति वा ।' अमावस्या और पूर्णिमा को अधिकाधिक बढ़ता और घटता है । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ तीसम हत्तेसु लवणसम ददो वड्ढति हायति य- तीस मुहूर्त में लवणसमुद्र बढ़ता है और घटता है६४६. ५०-लवणे णं भते ! समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं कतिखुत्तो ६४६. प्र०-भगवन् ! तीस मुहूर्त में (अहोरात्रि में) लवणसमुद्र अतिरेगं अतिरेगं वड्ढति वा हायति वा ? का पानी अधिक से अधिक कितनी बार बढ़ता है और घटता है ? उ.-गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो उ०—गौतम ! तीस मुहूर्त में लवणसमुद्र का पानी अधिक अतिरेगं अतिरेगं वड्ढति बा, हायति वा। से अधिक दो बार बढ़ता है और घटता है। १ भग० स० ३, उ० ३, सु० १७ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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