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________________ सूत्र ६४७.६५० तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३४५ ६४७. ५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"लवणे गं समुद्दे ६४७. प्र०-भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि तोसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अइरेगं अइरेगं बड्ढइ वा “तीस मुहूर्त में लवणसमुद्र का पानी अधिक से अधिक दो बार हायइ वा? बढ़ता है और घटता है ?" उ०-गोयमा ! उड्ढमतेसु पायालेसु वड्ढड, आपूरितेसु उ०-गौतम ! पाताल कलशों से पानी के बाहर आने पर पायालेसु हायइ। पानी बढ़ता है और पाताल कलशों में वायु भर जाने पर पानी घटता है। से तेण?णं गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहु- इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-तीस मुहूर्त त्ताणं दुक्खुत्तो अइरेगं अइरेगं वड्ढइ वा, हायइ वा। में लवणसमुद्र का पानी अधिक से अधिक दो बार बढ़ता है और -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५७ घटता है । लवणसिहाए चक्कवालविक्खंभो लवणशिखा का चक्रवाल विष्कम्भ१४.५०-लवणसिहा णं भंते ! केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं, ६४८. प्र०-भगवन् ! लवणशिखा की चक्राकार चौडाई कितनी केवतियं अइरेगं अइरेगं वदति वा, हायति वा? है ? और वह ज्यादा से ज्यादा कितनी बढ़ती व घटती है ? उ०-गोयमा ! लवणसिहाए णं दस जोयणसहस्साई चक्क- उ०-गौतम ! लवणशिखा की चक्राकार चौड़ाई दस हजार वालविक्खंभेणं, देसूणं अद्धजोयणं अतिरेगं अतिरेगं योजन की है और ज्यादा से ज्यादा कुछ कम आधा योजन जितनी वड्ढति वा, हायति वा। बढ़ती व घटती है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५८ लवणसम इस्स वेलंधरणागरायाणं संखा६४६. ५०-लवणस्स णं भंते ! समुहस्स कइ णागसाहस्सीओ अभितरियं बेलं धारेंति? कइ नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारेंति, कइ नागसाहस्सीओ अग्गोदयं वेलं धारेंति ? उ०-गोयमा ! लवणसमुद्दस्स बायालीसं णागसाहस्सीओ अभितरियं वेलं धारेंति, बावरि णागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारेंति, सढि णागसाहस्सीओ अग्गोदयवेल धारेति ।। एवामेव सपुष्वावरेणं एगा णागसतसाहस्सी चोवतरि च णागसहस्सा भवंतीतिमक्खाया। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५८ वेलंधर नागरायचउक्कवण्णणं६५०.५०-कति णं भंते ! वेलंधरा णागराया पण्णत्ता? उ०--गोयमा ! चत्तारि वेलंधरा णागराया पण्णत्ता, तं जहा- १. गोथूभे, २. सिवए, ३. संखे, ४. मणोसिलए। लवणसमुद्र के वेलंधर नागराजों की संख्या६४६. प्र०-भगवत् ! लवणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला को कितने हजार नाग धारण करते हैं ? बाह्य वेला को कितने हजार नाग धारण करते हैं ? अग्रोदक वेला को कितने हजार नाग धारण करते हैं ? उ०-गौतम ! लवणसमुद्र कीआभ्यन्तर वेला को बियालीस हजार नाग धारण करते हैं। बाह्य वेला को बहत्तर हजार नाग धारण करते हैं। अग्रोदक वेला को साठ हजार नाग धारण करते हैं । इस प्रकार पूर्वापर के मिलाकर एक लाख चोहत्तर हजार नाग होते हैं-ऐसा कहा गया है । चार वेलंधर नागराजों का वर्णन६५०. प्र०-भगवन् ! वेलंधर नागराज कितने कहे गये हैं ? उ०-गौतम ! वेलंधर नागराज चार कहे गये हैं, यथा(१) गोस्तूप, (२) शिवक, (३) शंख, (४) मनःशिलाक । १ 'अग्रोदक'-'देशोनयोजनाई जलादुपरि वर्द्धमानं जलम्'।-टीका ३ सम. ७२, सु. २ । २ ४ सम. ४२, सु. ७ । सम.६०, सु.२।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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