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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : द्वीपसमुद्र प्रमाण
सूत्र ९०३-९०४
कतिहिं वा काहि फुडे ?
कितनी कायों से स्पृष्ट है ? किं धम्मत्थिकाएणं-जाव-आगासत्थिकाएणं फुडे ? क्या धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है ?-यावत्-क्या आकास्ति
काय से स्पृष्ट है ? एएणं भेदेणं-जाव-किं पुढविकाइएणं, फुडे-जाव-तसकाएणं क्या पृथ्वीकाय से स्पृष्ट हैं-यावत्-क्या त्रसकाय से
स्पृष्ट है ? अद्धासमएणं फुडे ?
अद्धा समय से स्पृष्ट है ? उ०-गोयमा ! णो धम्मत्थिकाएणं फुडे,
उ० हे गौतम ! धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है। धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे,
धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है । धम्मत्थिकायस्स पएसेहिं फुडे ।
धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पृष्ट है । एवं अधम्मत्थिकायस्स वि, आगासत्थिकायस्स वि । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय से भी स्पृष्ट
नहीं है । (किन्तु इनके देश-प्रदेश से स्पृष्ट है।) पुढविकाइएणं फुडे-जाव-वणप्फइकाइएणं फुडे । पृथ्वीकाय से स्पृष्ट है-यावत्-वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है । तसकाएणं सियफुडे, सिय नो फुडे,
त्रसकाय से कभी स्पृष्ट है कभी स्पृष्ट नहीं है। अद्धासमएणं फुडे ।
अद्धासमय से स्पृष्ट है । २०४. एवं लवणसमुद्दे, धायइसंडेदीवे, कालोए समुद्दे, अभितर ६०४. इसी प्रकार लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदसमुद्र, पुक्खरद्ध।
आभ्यन्तर पुष्कराई है। बाहिरपुक्खरद्ध एवं चेव,
बाह्यपुष्कराध भी इसी प्रकार है। णवरं-अद्धासमएणं णो फुडे,
विशेष-बाह्यपुष्करार्ध अद्धासमय से स्पृष्ट नहीं है । एवं-जाव-सयंभूरमणे समुद्दे ।
इसी प्रकार-यावत-स्वयम्भूरमण समुद्र भी अद्धासमय से
स्पृष्ट नहीं है। एसा परिवाडी इमाहिं गाहाहिं अणुगंतव्वा, तं जहा- यह क्रम इन गाथाओं में जानना चाहिए यथाजंबुद्दीवे लवणे, धायइ कालोए पुक्खरे वरुणे ।
जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदसमुद्र, पुष्करवर
द्वीप, वरुणद्वीप । खीर घत खोत नंदि य, अरुणवरे कुण्डले रुयए ।।१।। क्षीर, घृत, क्षोत = इक्षुरस, नन्दी, अरुणवर, कुण्डल,
और रुचक ॥१॥ आभरण-वत्थ-गंधे, उप्पल-तिलए य पुढवि-णिहि-रयणे। आभरण, वस्त्र, गंध, उत्पल, तिलक, पृथ्वी, निधिरत्न, वासहर-दह-नदीओ, विजया-वक्खार-कप्पिदा ॥२॥ वर्षधर, ब्रह, नदियाँ, विजय, वक्षस्कार कल्पेन्द्र ॥२॥ कुरु-मंदर-आवासा, कूडा णक्खत्त-चंद-सूरा य ।
कुरु, मन्दर, आवासपर्वत, कूट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, देव, देवे णागे जक्खे, भूए य सयंभूरमणे य ॥३॥ नाग, यक्ष, भूत, स्वयम्भूरमण ॥३॥
(इन नाम वाले द्वीप-समुद्र इस मध्यलोक में है)
यह कथन सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की अपेक्षा से है। सूक्ष्म पृथ्वीकाय-यावत -सूक्ष्म वनस्पतिकाय के समान त्रसकाय के सूक्ष्म न होने से सर्वत्र व्याप्त नहीं है। अतएव जम्बूद्वीप त्रसकाय से कभी स्पष्ट नहीं है' यह कथन संगत है । केवली त्रस हैं-केवल समुद्घात के समय उनके आत्म-प्रदेशों से सम्पूर्ण लोक के समान सम्पूर्ण जम्बूद्वीप भी त्रसकाय से स्पृष्ट
है । अत: यह कथन भी संगत है। २ जीवा. पडि. ३, २, सु. १६६ ।