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________________ सूत्र ८४१ तिर्यक् लोक : नंदीश्वरद्वीप गणितानुयोग ४०१ ते गं अंजणगपरवयगा चतुरासीतिजोयाणसहस्साई उड्ढं वे अंजनक पर्वत चौरासी हजार योजन ऊंचे हैं । उच्चत्तेणं,' एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, एक हजार योजन भूमि में गहरे हैं । मूले साइरेगाई बस जोयणसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, मूल में दस हजार योजन से कुछ अधिक लम्बे चौड़े हैं। धरणियले बस जोयणसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, धरणि तल पर दस हजार योजन लम्बे चौड़े हैं । ततोऽणंतरं च णं माताए माताए पदेसपरिहाणीए परि- तदनन्तर थोड़े थोड़े प्रदेश घटते घटते ऊपर एक हजार हायमाणा परिहायमाणा उरि एगमेगं जोयणसहस्सं आयाम- योजन लम्बे चौड़े हैं। विक्खंभेणं, मूले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते मूल में इगतीस हजार छ: सौ तेवीस योजन में कुछ कम की किचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं, परिधि हैं। धरणियले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयण- धरणितल पर इकतीस हजार छः सौ तेवीस योजन में कुछ सते देसूणे परिक्खेवेणं, अधिक की परिधि है। सिहरतले तिष्णि जोयणसहस्साई एक्कं च बावट्ठ जोयण- शिखरतल पर तीन हजार एक सौ बासठ योजन से कुछ सतं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ता, अधिक की परिधि कही गई है। मूले वित्थिण्णा, मझे संखित्ता, उप्पि तणुया, गोपुच्छ- मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर पतले गोपुच्छ के संठाणसंठिया सव्वंजणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। आकार वाले वे सारे अंजनक पर्वत स्वच्छ है-यावत्-. मनोहर हैं। पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइया परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं प्रत्येक अंजनक पर्वत पद्मवरवेदिका से घिरा हुआ है और वणसंडपरिक्खित्ता, प्रत्येक पद्मवरवेदिका बनखण्ड से घिरी हुई है। वण्णओ। पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णक कहें। तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं बहुसमर- प्रत्येक अंजनक पर्वत पर सर्वथा सम रमणीय भूमिभाग कहा मणिज्जो भूमिभागो पण्णत्तो, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेति गया है जिस प्रकार मृदंगतल है-यावत्-वहाँ देव-देवियाँ वा-जाव-विहरंति । विहरण करते हैं। तेसि गं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए उन सर्वथा रमणीय भूमिभागों के ठीक मध्यभाग में सिद्धायपत्तेयं पत्तेयं सिद्धायतणा पण्णत्ता। तन कहे गये हैं। एगमेगं जोयणसतं आयामेणं, पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं, प्रत्येक सिद्धायतन सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा बावत्तरिजोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अणेगखंभसतसनिविट्टा, बहत्तर योजन ऊंचा सैंकड़ों स्तम्भों से बना हुआ है। वण्णओ। यहाँ सिद्धायतन का वर्णक कहें। तेसि गं सिद्धायतणाणं पत्तयं पत्तेयं चउद्दिसि चत्तारि उन प्रत्येक सिद्धायतनों के चारों दिशाओं में चार चार द्वार दारा पण्णत्ता, तं जहा कहे गये हैं यथा१. पुरत्थिमेणं देवदारे, (१) पूर्व दिशा में, देवद्वार, २. दाहिणेण असुरद्दारे, (२) दक्षिण दिशा में असुरद्वार, ३. पच्चत्थिमेणं णागद्दारे, (३) पश्चिम दिशा में नागद्वार, ४. उत्तरेणं सुवण्णदारे। (४) उत्तर दिशा में सुवर्णद्वार । १ सम. ८४, सु. ७। २ सव्वेवि णं अंजणगपवता यसजोयणसयाइमुब्वेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्वंभेग, उरि दसजोयणसताई विखंभेणं पण्णत्ता। - ठाण १०, सु० ७२५
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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