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________________ ४०२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नंदीश्वरद्वीप सूत्र ८४१ तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमद्वितीया वहाँ पल्योपम की स्थिति वाले चार महधिक-यावत्परिवति, तं जहा महासुखी देव रहते हैं यथादेवे, असुरे, णागे, सुवण्णे । (१) देव, (२) असुर, (३) नाग, (४) सुपर्ण । तेणं दारा सोलसजोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अट्ठ जोयणाईवे द्वार सोलह योजन ऊँचे हैं । आठ योजन चौड़े हैं उतने ही विक्खंभेण, तावतियं चैव पवेसेण, सेता वरकणगथूभियागा चौड़े उनके प्रवेश भाग हैं, वे सब श्रेष्ठ कनक स्तूपिकाओं से -जाव-वणमाला। सुशोभित हैं यावत्-वनमालायें लटक रही है। वण्णओ। यहाँ द्वार वर्णक है। तेसि णं दाराणं चउदिसि चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता। उन द्वारों के चारों दिशाओं में चार मुख मण्डप कहे गये हैं, तेणं मुहमंडवा एगमेगं जोयणसतं आयामेणं, पण्णासं वे मुख मण्डप एक सौ योजन लम्बे हैं, पचास योजन चौड़े है, जोयणाई विक्खंभेणं, साइरेगाई सोलस जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, सोलह योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं । वण्णओ। यहाँ मुखमण्डप वर्णक है। तेसि णं मुहमंडवाणं चउदिसि चत्तारि दारा पण्णत्ता, उन मुखमण्डपों में चारों दिशाओं के चार द्वार कहे गये हैं । तेणं दारा सोलसजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, वे द्वार सोलह योजन ऊँचे हैं, अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, आठ योजन चौड़े हैं। तावतियं चंव पवेसेणं, उतना ही चौड़ा उनका प्रवेशभाग है । सेसं तं चेव-जाव-वणमालाओ। शेष सब पूर्ववत्-यावत्-वनमालाओं का वर्णन करना चाहिए। एवं पेच्छाघरमंडवा वि। इसी प्रकार प्रेक्षाघर मण्डप भी है। तं चेव पमाणं, जं मुहमडवाणं, उन प्रेक्षाघर मण्डपों का प्रमाण पूर्ववत् है। दारा वि तहेव। उनके द्वारों का प्रमाण भी पूर्ववत् है। णवरं-बहुमज्झदेसे पेच्छाघरमंडवाणं, अक्खाडगा, मणि- विशेष-वे द्वार प्रेक्षाघर मण्डपों के मध्यभाग में है; आधे पेढियाओ अद्धजोयणप्पमाणाओ, योजन लम्बे चौड़े अखाड़े और मणिपीठिकायें हैं । सीहासणा अपरिवारा-जाव-दामा। परिवार रहित सिंहासन-यावत्-मालाओं का वर्णन कहना चाहिए। थूभाई चउद्दिसि तहेव । चारों दिशाओं में पूर्ववत् चार स्तूप हैं । णवरं-सोलस जोयणप्पमाणा सातिरेगाइं सोलस जोय- विशेष-वे स्तूप सोलह योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं, शेष णाई उड्ढे उच्चत्तणं, सेसं तहेव-जाव-जिणपडिमा। पूर्ववत्-यावत्-जिन प्रतिमाओं का वर्णक है । चेइयरूक्खा तहेव चउद्दि सिं तं चेव पमाणं, जहा विजयाए स्तूपों के चारों दिशाओं में चैत्यवृक्ष पूर्ववत् है, उनका रायहाणीए । प्रमाण विजया राजधानी के चैत्य वृक्षों के समान है। णवरं-मणिपेढियाए सोलस जोयणप्पमाणाओ। विशेष-मणिपीठिकायें सोलह योजन लम्बी चौड़ी है । तेसि णं चेइयरुक्खाण चउदिसि चत्तारि मणिपेन्यिाओ उन चैत्य वृक्षों के चारों दिशाओं में आठ योजन चोड़ी चार अट्ट जोयणविक्खंभाओ चउजोयण बाहल्लाओ । योजन मोटी मणिपीठिकायें हैं। महिंदज्झया चउसट्ठिजोयणुच्चा, जोयणोब्वेधा, जोयण- चौसठ योजन ऊँची महेन्द्र ध्वजायें हैं। विक्खंभा। वे एक योजन भूमि में गहरी हैं और एक योजन चोड़ी है। सेसं तं चेव । शेष सब पूर्ववत् है । एवं च उद्दिसि चत्तारि णंदा पुक्खरिणीओ, इसी प्रकार चारों दिशाओं में चार नन्दा पुष्करणियाँ हैं। णवरं-खोयरसपडिपुण्णाओ। विशेष-वे इक्षुरस जैसे जल से भरी हुई है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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