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________________ सूत्र ८४१-८४३ तिर्यक् लोक : नंदीश्वरद्वीप वर्णन गणितानुयोग ४०३ जोयणसतं आयामेणं, पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं, पण्णासं एक सो योजन लम्बी हैं-पचास योजन चौड़ी है, पचास जोयणाई उव्वेधेणं । सेसं तं चेव । योजन गहरी है, शेष सब पूर्ववत् है । मणोगलियाणं गोमाणसीण य अडयालीसं अडयालीसं आस्थानमण्डप और शय्यागृह अड़तालीस अड़तालीस सहस्साई। हजार है। पुरथिमेणं वि सोलस, पूर्व दिशा में सोलह हजार, पच्चत्थिमेणं वि सोलस, पश्चिम दिशा में सोलह हजार, दाहिणणं वि अट्ठ, दक्षिण दिशा में आठ हजार, उत्तरेणं वि अट्ठ साहस्सीओ, उत्तर दिशा में आठ हजार, तहेव सेसं। शेष सब पूर्ववत् है। उल्लोया भूमिभागा-जाव-बहुमज्झदेसभागे मणिपेढिया छतों के भूमिभाग-यावत्-उनके मध्यभाग में सोलह सोलसजोयणाई आयाम-विक्खंभणं, अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं योजन लम्बी चौड़ी ओर आठ योजन मोटी मणिपीठिकायें हैं। तारिसं। मणिपीढियाणं उपि देवच्छंदगा सोलस जोयणाई आयाम- मणिपीठिकाओं के ऊपर सोलह योजन लम्बे चौड़े और विक्खंभेणं, सातिरेगाइं सोलस जोयणाई, उड्ढं उच्चत्तेणं, सोलह योजन से कुछ अधिक ऊँचे देवछंदक-चंदवे हैं, वे सब सव्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। रत्नमय हैं-यावत्-मनोहर है । अट्ठसयं जिणपडिमाणं सव्वो सो चेव गमो जहेव वेमाणिय एक सौ आठ जिन प्रतिमाओं का सम्पूर्ण वर्णन वैमानिक सिद्धायतणस्स। -जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८३ देवों के सिद्धायतनों को प्रतिमाओं के समान है। पुरथिमिल्ले अंजणगपव्वए पूर्वी अंजनक पर्वत८४२. तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले अजणगपवते तस्स णं चउद्दिसि ८४२. उनमें से पूर्व दिशा के अंजनक पर्वत पर उसके चारों चत्तारि णदाओ पोक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- दिशाओं में चार नन्दा पुष्करणियाँ कही गई है, यथागंदुत्तरा य णंदा आणंदा गंदिवद्धणा।' (१) नन्दुत्तरा, (२) नन्दा, (३) आनन्दा, (४) नन्दीवर्धना । ताओ गंदा पुक्खरिणीओ एगमेगं जोपणसयं आयाम- वे नन्दा पुष्करणियाँ प्रत्येक एक सौ योजन लम्वी चौड़ी है विक्खंभेणं, दस जोयणाई उध्वेहेणं, अच्छाओ-जाव-पडिरूवाओ। दस योजन गहरी है । स्वच्छ हैं—यावत् -- मनोहर है। पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेदिया परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं प्रत्येक नन्दापुष्करणी पद्मवरवेदिका से घिरी हुई है, प्रत्येक वणसंडपरिक्खित्ता । पद्मवरवेदिका वनखण्ड से घिरी हुई है। तत्थ तत्थ-जाव-सोवाणपडिरूवगा तोरणा । उन सबके-यावत् --पगथिया तथा तोरण हैं। -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८३ पुक्खरणीसु दधिमुहपव्वया पुष्करणियों में दधिमुख पर्वत८४३. तासि णं पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए, ८४३. उन पुष्करिणियों के मध्य भाग में दधिमुख पर्वत है। पत्तेयं पत्तेयं दहिमुहपध्वया चउसट्ठि जोयसहस्साई उड्ढे प्रत्येक दधिमुख पर्वत चौसठ हजार योजन ऊंचा है, एक उच्चत्तेणं, एगं जोयणसहस्सं उब्वेहेणं, हजार योजन भूमि में गहरा है। सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिता दस जोयणसहस्साई पल्यंक के आकार से स्थित है अतएव सर्वत्र समान है, दस विक्खंभणं', हजार योजन चौड़ा है। १ पाठान्तर-नदिसेणा अमोघा य गो) भा य सुदंसणा । २ सब्वे वि ण दधिमुहपव्वया पल्लगसंठाणसं ठिता सम्वत्यसमाविक्खंभुस्सेहेणं चउसट्टि चउसट्टि जोयणसहस्साई पण्णता । -सम. ६४, सु. ४ ३ सब्वे वि णं दधिमुहपब्बता दसजोयणसताई, सम्वत्थ समा पल्लगसंठिता, दस जोयणसहस्साई विक्खं भेणं पण्णत्ता । -ठाण १०, सु. ७२५
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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