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________________ -सूत्र २५१-२५५ अपव्वण भरवासरस दुहा विभवणं २५१. भरहस्स णं वासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वेअड्ढे णामं पव्वए पण्णत्ते, जे णं भरहं वासं दुहा विभयमाणे चिट्ठइ । सं जहा दाहिर उत्तरमरहं च । २५२. प्र० कहि मते वासे पण्णते ? , दाहिणभरहवासरस अबट्टिई पमाणं च तिर्यक् लोक : भरत क्षेत्र - जम्बु० वक्ख० १, सु० १० उ०- गोवमा ! वेयस्तपस्तदाहिणे -२५४. हि 1 वाहिल समुद्दस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थि मलवणसमुद्दस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणभरहे णामं वासे पण्णत्ते पाईप पडीवायए, उीण दाहिणविचिन्ने अद्धचंद ठाए तिहा लवणसमुद्द पुट्टे, गंगा-सिहि महाण हि तिभागपविभत्तं, दोण्णि अट्ठतीसे जोअणसए तिष्णि अ एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं । दक्षिणार्ध भरतवर्ष की अवस्थिति और उसका प्रमाण जम्बूद्दीने दवे दाहिणहते भर मा २५२. प्र० - भगवन्! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दक्षिणार्ध-भरत नामक वर्ष कहाँ कहा गया है ? २५२ तस्स जीवा उत्तरेण पाईन पडीगावया हा लवणसमुद्द पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्ल लवणसमुद्द पुट्ठा, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुद्द पुट्टा, नवजोयणसहस्साइं सत्त य अडयाले जोयणसए दुवालस य एगुणबीसहभाग जोपणस्त आपामेणं'। -२५४. तीसे णं धणुपुट्ठ े दाहिणेणं णव जोयणसहस्साई सत्तछावट्ठ लोणसए इस एगुणवीसभागे जोवनरस चिविसा हिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । - जम्बु० वक्ख० १, सु० ११ दाहिणभरहट्टे धणुपिस आयाम धमुट्ठि अट्ठाण उडतोयबाक नाई आयामेणं पण्णत्ते । - सम० ६८, सु० ४ गणितानुयोग वैताढ्यपर्वत से भरतवर्ष के दो विभाग २५१. भरतक्षत्र के मध्य भाग में वैताढ्य नामक पर्वत कहा गया है । जो भरतक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करता हुआ स्थित है । यथा— दक्षिणार्ध - भरत और उत्तरार्ध-भरत । २३८ योजन है । ३ १६ १६७ उ०- गौतम ! वैताढ्य पर्वत के दक्षिण में, दक्षिणी लवणसमुद्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दक्षिणार्ध भरत नामक वर्ष कहा गया है। यह पूर्व पश्चिम में लम्बा और उत्तरदक्षिण में चौड़ा है। उसका आकार अर्धचन्द्र के समान है। यह तीन ओर से सबणसमुद्र से स्पृष्ट है तथा गंगा और सिन्धु नामक महानदियों से तीन भागों में विभक्त हैं । इसकी चौड़ाई २५३. उसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बी तथा दोनों ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है । पूर्व की ओर पूर्वी लवणसमुद्र से स्पृष्ट है, और पश्चिम की ओर पश्चिमी लवणसमुद्र से स्पृष्ट है । उस जीवा की लम्बाई १७४८१२ योजन है । १६ - २५४. उसकी धनुर्पीठिका दक्षिण में९७६६, योजन गई है। दक्षिणार्ध भरत के अनुपृष्ठ का आयाम— २५५. दक्षिणार्थ भरत के धनुपृष्ठ का आयाम कुछ कम अद्याप सौ योजन का कहा गया है । योजन से किच-विशेष अधिक परिधि वाल कही १२ दारिस गंजीबा पाईण-पत्रीणापया लवणसमुद्रा नवजोपणसहस्सा आयामेष्णता । सम० मु० १२२ ऊपर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार एक, सूत्र ग्यारह में दक्षिणार्धभरत की जीवा की लम्बाई नौ हजार सात सौ अड़तालीस योजन एक योजन के उन्नीस भागों में से बारह भाग जितनी कही है, किन्तु समवायांग सूत्र १२२ में दक्षिणार्धं भरत की जीवा की लम्बाई केवल नौ हजार योजन की ही कही गई है। २ ऊपर जम्बूदीप विस्कार एक सूत्र ११ में दक्षिण भरतार्थ के धनुपृष्ठ की केवल परिधि कही है और यहाँ के धनुपृष्ठ का आयाम कहा गया है ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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