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________________ १९६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : भरत क्षेत्र सूत्र २४६-२५० जंबुद्दीवस्स भरहे वासे दसरायहाणीओ जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में दस राजधानियाँ२४६. जंबुद्दीवे दीवे भरहेवासे दसरायहाणीओ पण्णत्ताओ, तंजहा- २४६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में दस राजधानियाँ गाहा-चंपा, महुरा, वाणारसी य, सावत्थि तह य साएयं, कही गई हैं । यथा-गाथार्थ-(१) चम्पा, (२) मथुरा, (३). हत्थिणं उर कंपिल्लं, मिहिला कोसं बि रायगिह। वाराणसी, (४) श्रावस्ति, (५) साकेत, (अयोध्या), (६) -ठाणं १०, सु० ७१८ हस्तिनापुर, (७) कांपिल्यपुर, (८) मिथिला, (६) कोशाम्बि, १०. राजगृह। भरहवासस्स णामहेउ भरतवर्ष के नाम का हेतु२४७.५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-भरहे वासे भरहे वासे? २४७. प्र०-भगवन् ! भरतवर्ष को भरतवर्ष क्यों कहते हैं ? उ०-गोयमा ! भरहे णं वासे वेअड्ढस्स पव्वयस्स दाहिणणं, उ०-गौतम ! भरतवर्ष में, वैताढ्य पर्वत से दक्षिण में चोद्दसुत्तरं जोअणसयं एगस्स य एगूणवीसइभाए जोयणस्स अबाहाए, लवणसमुद्दस्स उत्तरेणं चोद्दसुत्तरं व्यवधानरहित ११४. योजन दूरी पर, लवणसमुद्र से उत्तर में जोअणसयं एक्कारस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स अबाहाए, गंगाए महाणईए पच्चत्थिमेणं, सिंधुएमहाणईए पुरत्थिमेणं, दाहिणड्ढभरहमझिल्लति- व्यवधानरहित ११४११ योजन दूरी पर, गंगा महानदी के पश्चिम भागस्स बहुमज्झदेसमाए, एत्थ णं विणीआ णामं रायहाणी पण्णत्ता। में, सिन्धु महानदी से पूर्व में, दक्षिणार्ध भरत के मध्यविभाग के ठीक बीचोंबीच विनीता नामक राजधानी कही गई है। पाईण-पडीणमया उदीण-दाहिणवित्थिना दुवालस- वह पूर्व-पश्चिम में लम्बी, उत्तर-दक्षिण में चौड़ी, बारह जोयणायामा णवजोयणवित्थिन्ना धणवइमइणिम्माया योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी है । वह कुबेर की बुद्धि से निर्मित, चामीयरपायारा णाणामणिपंचवण्णकविसीसगपरि- स्वर्णमय और प्राकार वाली, नानामणियों के पंचरंगे कंगुरों से मंडिआभिरामा अलकापुरीसंकासा पमुइयपक्किलिआ मंडित होने से रमणीय, अलकापुरी के सदृश प्रमुदित एवं प्रक्रीडित पच्चक्खं देवलोगभूआ रिद्धिस्थिमिअसमिद्धा पमुइ- जैसी, प्रत्यक्ष देवलोक के समान, ऋद्धि, भवन और जनसमूह से जअणजाणवया-जाव-पडिरूवा। समृद्ध, नगरनिवासीजनों एवं आगतजनों को प्रमोद उत्पन्न करने वाली है-यावत्-प्रतिरूप है। २४८. तत्थ ण विणीआए रायहाणीए भरहे णामं राया चाउरंत- २४८. उस विनीता राजधानी में भरत नामक राजा चारों दिशाओं चक्कवट्टी समुप्पज्जित्था । पर विजय प्राप्त करने वाला चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। -जंबु० वक्ख० ३, सु० ४१-४२ २४६. भरहे अ इत्थ देवे महिड्ढिए-जाव-पलिओवमदिइए परिवसइ। २४६. यहाँ भरत नामक देव रहता है जो महद्धिक-यावत् पल्योपम की स्थिति वाला है। से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-भरहे वासे भरहे वासे इस कारण गौतम ! इसका नाम भरतवर्ष है। -जंबु० वक्ख० ३, सु० ७१ भरहवासस्स सासयत्तं भरतवर्ष का शाश्वतपन - २५०. अदुत्तरं च णं गोयमा ! भरहस्स वासस्स सासए णामधिज्जे २५०. अथवा गौतम ! भरतवर्ष का यह नाम शाश्वत कहा गया पण्णत्ते, जं ण कयाइ ण आसि, 'ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ है, जो कभी नहीं था ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है, ण भविस्सइ, भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे णिअए कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है-वह था, है और रहेगा। सासए अक्खए अवए अवट्ठिए णिच्चे भरहेवासे । भरतवर्ष यह नाम ध्र व है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय -जंबु० वक्ख० ३, सु० ७१ है, अवस्थित है और नित्य है। इति । १ इसके आगे सूत्र ७० पर्यन्त चक्रवर्ती वर्णन, धर्मकथानुयोग प्रथम स्कन्ध में है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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