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लोक-प्रज्ञप्ति
काल लोक : जम्बूद्वीप की चारों दिशाओं में वर्षा आदि की प्ररूपणा
सूत्र ५६
प०-जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे हेमंताणं पढमे प्र०-भगवन् ! जब जम्बुद्वीप द्वीप के दक्षिणार्ध में हेमन्त समए पडिवज्जइ?
का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है ? उ०-जहेव वासाणं अभिलावो (२०) तहेव हेमंताग वि, उ०-जिस प्रकार वर्षा का अभिलाप है उसी प्रकार हेमन्त
(३०) गिम्हाण वि भाणियव्वो-जाव-उउ। का भी और ग्रीष्म का भी कहना चाहिए यावत्-ऋतु । एवं एए तिन्नि वि, एएसि तीसं आलावगा भाणि- इसी प्रकार ये तीन हैं । इमके तीस आलापक कहने चाहिए।
यव्वा । प०-जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स प्र०-भगवन् ! जब जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षि
दाहिणड्ढे पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्ढे णार्ध में प्रथम अयन प्रतिपन्न होता है तब उत्तरार्ध में भी प्रथम वि पढमे अयणे पडिवज्जइ ? |
अयन प्रतिपन्न होता है ? जहा समएणं अभिलावो तहेव अयणेण वि भाणियव्वो, जिस प्रकार समय का अभिलाप कहा उसी प्रकार अयन का -जाव
भी कहना चाहिए। यावत्उ०-हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्व- उ-हाँ गौतम ! जब जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के
यस्स उत्तर-दाहिणेणं अणंतर पच्छाकडसमयंसि उत्तर-दक्षिण में अनन्तर द्वितीय..समय में प्रथम अयन प्रतिपन्न पढमे अयणे पडिवम्ने भवइ ।
होता है। जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण वि भाणि- जिस प्रकार अयन का अभिलाप है उसी प्रकार संवत्सर का यव्वो।
____भी कहना चाहिए। जुएण वि, वाससएण वि, वाससहस्सेण वि, वाससय- युग का भी, सौ वर्ष का भी, हजार वर्ष का भी, लाख वर्ष सहस्सेण वि, पुव्वंगेण वि, पुव्वेण वि, तुडियंगेण वि, का भी, पूर्वाग का भी, पूर्व का भी, त्रुटितांग का भी, त्रुटित का तुडिएण वि,
भी। एवं पुव्वंगे पुव्वे, तुडियंगे तुडिए, अडडंगे अडडे, अव- इसी प्रकार पूर्वांग पूर्व, त्रुटितांग त्रुटित, अडडांग अडड, वंगे अबवे, हूहूयंगे हूहूए, उप्पजंगे उप्पले, पउमंगे अववांग अवब, हूहूकांग हूहूक, उत्पलांग उत्पल, पमांग पद्म पउमे, नलिनंगे नलिने, अत्थणिउरंगे अत्थणिउरे, नलिनांग नलिन, अर्थनिकुरांग अर्थनिकुर, अयुतांग अयुत, नयुतांग अउयंगे अउए, णउयंगे णउए, पउयंगे पउए, चूलियंगे नयुत, प्रयुतांग प्रयुत, चूलिकांग चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग शीर्षचूलिया, सीसपहेलियंगे सीसपहेलिया, पलिओवमेण प्रहेलिका, पल्योपम भी, सागरोपम भी।
वि, सागरोवमेण वि। ५०-जया ण भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे पढमा प्र०-भगवन् ! जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्ध में प्रथम ओसप्पिणी पडिवज्जइ?
अवसपिणी प्रतिपन्न होता है ? तया णं उत्तरड्ढे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ? तब उत्तरार्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होता है ? जया णं उत्तरड्ढे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, जब उत्तरार्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होता है तब तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम- जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व-पश्चिम में नहीं है अवसर्पिणी पच्चत्यिमेणं णेवत्थि ओसप्पिणो णेवत्थि उस्सप्पिणी। और नहीं है उत्सर्पिणी। अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो !
आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ अवस्थित काल कहा गया है ? उ०-हंता गोयमा ! त चेव उच्चारयन्वं-जाव-समणा- उ०-हाँ गौतम ! पूर्ववत् कहना चाहिए यावत्-"श्रमउसो !
णाउषो"। जहा ओसप्पिणीए आलावो भणिओ।
जिस प्रकार अवसर्पिणी आलापक कहा, एवं उस्सप्पिणीए वि भाणियब्वो।'
इसी प्रकार उत्सपिणी का आलापक कहना चाहिए। -भग. स. ५, उ. १, सु. १४-२१
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सूरिय. पा. ८, सु. २६ ।