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सूत्र ३६३-३६५
तिर्यक्लोक : दीर्घवंताढ्य पर्वत
गणितानुयोग
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मूले वित्थिण्णा, मज्झे संखित्ता, उप्पि तणुया, सम्वकंचण- मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर से पतले, सभी पर्वत मया अच्छा-जाव-पडिरूवा।"
कंचनमय हैं स्वच्छ हैं—यावत्-प्रतिरूप है। पत्ते पत्तेअं पउमवरवेइया परिक्खित्ता।
प्रत्येक कंचनकपर्वत पद्मवरवेदिका से घिरा हुआ है। पत्ते पत्तेअं वणसंडपरिक्खित्ता।
प्रत्येक कंचनक पर्वत वनखण्ड से घिरा हुआ है। तेसि णं कंचणगपध्वयाणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे उन कंचनक पर्वतों के ऊपर अतिसमरमणीय भूभाग कहा पण्णत्ते, तत्थ णं कंचणगा देवा आसयंति-जाव-भोगभोगाइं गया है । वहाँ वे कंचनक देव बैठते हैं-यावत् –भोग भोगते हुए भुजमाणा विहरति ।
विहार (क्रीडा) करते हैं । तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए उन पर्वतों के अतिसम रमणीय भूभाग के मध्य में प्रत्येक पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा, सड्ढ बाढि जोयणाई उड्ढे कांचनगदेव के प्रासाद हैं, वे प्रासाद साढ़े बासठ योजन ऊपर की उच्चत्तेणं, एक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं । ओर ऊँचे हैं, इकतीस योजन और एक कोश चौड़े हैं । मणिपेढिया दो जोयणिया, सीहासणा सपरिवारा। दो योजन (लम्बी-चौड़ी) मणिपीठिका है, (यहाँ पर)
-जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५० सिंहासन युक्त है। कंचणगपव्वयाणं णामहेऊ
कांचनक पर्वतों के नाम के हेतु३६४. ५०–से केणढणं भंते ! एवं बुच्चइ-"कंचणगपव्वया, ३६४. प्र०-हे भगवन् ! कांचनक पर्वत किस कारण से कांचनक कंचणगपव्वया ?
पर्वत कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! कंचणगेसु णं पव्वएसु तत्थ तत्थ बावीसु उ०-हे गौतम ! उन कांचनगपर्वतों पर जहाँ-तहाँ
उप्पलाई पउमाई कंचणगवण्णाई कंचणगप्पभाई कंचण- वापिकाओं में उत्पल हैं, पद्म है, वे कांचनग पर्वत जैसे वर्ण गवण्णाभाई कंचणगदेवा महिड्ढिोया-जाव-विहरंति। वाले हैं, प्रभा वाले हैं आभावाले वहाँ कांचनक देव महद्धिक है
-यावत् -विहार (क्रीडा) करते हैं । से तेणणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-"कंचणगपव्वया, हे गौतम ! इस कारण कांचनक पर्वत को कांचनक पर्वत कंचणगपव्वया।"
कहा जाता है। उत्तरेणं कंचणगाणं देवाणं कंचणियाओ रायहाणीओ (मेरुपर्वत से) उत्तर में कांचनक देवों की काचनिका राजअण्ण मि जंबुद्दीवे दीवे, तहेव सव्वं भाणियव्वं । धानियां अन्य जम्बूद्वीप द्वीप में है। शेष सब उसी प्रकार कहना
-जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५० चाहिए। चोत्तीस दोहवेयड्ढपब्वया
चौतीस दीर्घवैताढ्य पर्वत३६५. जंबुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं दोहवेयड्ढपव्वया पण्णत्ता । ३६५. जम्बुद्वीप द्वीप में चौतीस दीर्घ वैताढ्यपर्वत कहे गये हैं। ३९६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणणं दो दोह- ३६६. जम्बुद्वीप द्वीप में मंदरपर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो दीर्घ
वेयड्डपब्वया पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, तं जहा- वैताद्य पर्वत कहे गये हैं । वे दोनों क्षेत्रप्रमाण की दृष्टि से सर्वथा १ भारहे चेव दोहबेयड्डे, २ एरवए चेव दीहवेयड्ढे । सदृश है-यावत्-लम्बाई-चौड़ाई, ऊँचाई-गहराई आदि में समान -ठाणं २, उ. ३, सु. १८७ है। वह इस प्रकार है--(१) एक दीर्घवेताढ्य मन्दर पर्वत के
दक्षिण भाग के भारत में, (२) दूसरा दीर्घवेताट्य मन्दर पर्वत के उत्तर भाग ऐरवत क्षेत्र में ।
-जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५०
१ सम्वेसि पुरथिम-पच्चत्थिमेणं कंचणगपब्वयसया दस दस एगप्पमाणा । २ (क) प०-जम्बुद्दीवे णं भंते, दोवे केवइया दी हवेयड्ढपव्वया पण्णता ?
उ.-गोयमा ! चोत्तीसं दीहवेयड्ढपव्वया पण्णत्ता। (ख) ..."चतुस्त्रिशद्दीर्घवैताढ्या द्वात्रिंशद्विजयेषु भरतरावतयोश्च प्रत्येककमेकैक भावात् ।
-जम्बु० वक्ख० ६ सु० १२५
-जम्बू० वृत्ति।