SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कांचनग पर्वत गाहाओ - उववाओ कप्पो अभिसेअविहसणा य ववसाओ । अण्वणिन सुधम्मगमो जहा व परिवारणा इढी ॥ जावइयंमि पमाणंमि हुति जमगाओ णीलवंताओ । तावइअमंतरं खलु जमगदहाणं दहाणं च ॥ - जंबु वक्ख० ४, सु०८८ जंबुद्दीवे दो कंचणगपव्ययसपा३६३. जंबुद्दीवे णं दीवे दो कंचणगपव्वयसया पण्णत्ता ।' - सम. १०२. सु. ३ कंचनगपव्ययाणं अवट्टिई पमाणं च फोलवंत रहस्य णं पुरात्थिम-पच्चत्विमे इस जोगाई अबाधाए - एत्थ णं दस दस कंचणगपव्वया पण्णत्ता । ते णं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं, पणवीसं पणयोस जोयणाई उहे । मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं, २ मझे पण्णत्तर जोयणाइं विक्खंभेणं, उबर पास जीवणाई विरमेणं तिमि सोजोए किचि विसेसाहिए परिव मज्झे दोणि सत्ततीसे जोयणसए किचि विसेसाहिए परिक्वेणं, उवरि एवं अड्डा जोपणस किचि विसेसाहिए परिक्खे वेणं, ४ गाथार्थ - (दोनों यमक देवों का ) उपपात, संकल्प, अभिषेक, विभूषणा, व्यवसाय ( सिद्धायतन आदि की ) अर्चा, सुधर्मा सभा में गमन तथा परिवार का स्थापना ( इन सब का वर्णन करना चाहिए ) ॥ १ ॥ जितने प्रमाण वाले नीलवन्त के यमक पर्वत कहे गए हैं, निश्चित रूप से उतना ही प्रमाण यमकद्रहों का एवं द्रहों का समझना चाहिए ॥२॥ जम्बूद्वीप में दो सो कंचनगपर्वत ३९३. जम्बूद्वीप द्वीप में दो सो कांचनगपर्वत कहे गये हैं । गहाओ - मूलंमि जोयणसयं, पण्णत्तरि जोयणाई मज्झमि । उवरितले कंचणगा, पण्णासं जोअणा हुंति ॥ मूलमि तिष्णि सोले, सत्ततीसाई दुण्णि मज्झमि । अट्ठावण्णं च सयं, उवरितले परिरओ होइ ॥ सूत्र ३२-३६३ कंचनगपर्वतों की अवस्थिति और प्रमाण नीलवंत द्रह से पूर्व और पश्चिम में दस योजन के बाद व्यवधान रहित दस-दस कांचनगपर्वत कहे गये हैं । ^ प्रत्येक कंचनगपर्वत सौ योजन ऊपर की ओर उन्नत है, पचीस-पचीस योजन भूमि में गहरे हैं । प्रत्येक पर्वत मूल में सो योजन चौड़े हैं । मध्य में पचहत्तर योजन चौड़े हैं । ऊपर पचास योजन चौड़े हैं । मूल में तीन सो सोलह योजन से कुछ अधिक इनकी परिधि है। १ प० जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया कंचणगपव्त्रया पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! जम्बुद्दीवे दो कंचणगपव्त्रयस्या भवतीति मक्खायंती | मध्य में दो सो सेंतीस योजन से कुछ अधिक इनकी परिधि है । अपर एक सो अट्ठावन योजन से कुछ अधिक इनकी परिधि है । "देवकुसात दशकोमलयो प्रत्येक दश दश कानसद्भावात् । - जम्बु० वक्ख ० ६, सु० १२५ २ सव्वे विणं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता, एगमेगं गाउयस्यं उब्वेहेणं पण्णत्ता मूले, विक्खंभेण पण्णत्ता । ३ सब्वे विणं कंचणगपव्वया सिहरतले पन्नासं पन्नासं जोयणाई विक्वं भेणं पण्णत्ता । ४ णीलव तद्दहस्स पुव्वावरे पासे दस दस जोयणाइ अबाहाए एत्थ णं वीसं कंचणगपथ्वया पण्णत्ता । एवं जोधणसयं उद्धं उच्चत्तेणं । जंबु० वक्ष० ६ सूत्र १२५ की वृत्ति एगमेगं जोयणसयं - सम. १००, सु. ८ सम. ५०, सु. ७ - जंबु० वक्ख० ४, सु० ८३
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy