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________________ सूत्र ४०८ तिर्यक् लोक : ऋषभकूट पर्वत गणितानुयोग २५६ उसभकूडपव्वयस्स अवट्ठिई पमाणं च ऋषभकूट पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण४०८. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्ढभरहे वासे उसभ- ४०८. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीपवर्ती उत्तरार्ध भरतक्षेत्र कूडे णामं पवए पण्णत्ते ? में ऋषभकूट पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! गंगाकुण्डस्स पच्चत्थिमेणं, सिंधुकुण्डस्स उ०—हे गौतम ! गंगाकुण्ड के पश्चिम में, सिन्धुकुण्ड के पुरथिमेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपब्बयस्स दाहिणिल्ले पूर्व में, लघु हिमवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिणी भाग पर जम्बूद्वीप नितंबे-एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे उत्तर भरहे वासे द्वीपवर्ती उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में ऋषभकूट नामक पर्वत कहा उसहकूड णामं पव्वए पण्णत्ते । गया है। अट्ट जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, दो जोयणाई उध्वेहेणं। वह आठ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है, दो योजन भूमि में गहरा है। मूले अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं, मज्झे छ जोयणाई मूल में आठ योजन चौड़ा है, मध्य में छह योजन चौड़ा हैविक्खंभेणं उरि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं। ऊपर चार योजन चौड़ा है। मूले साइरेगाइं पणवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं । मूल में पच्चीस योजन से कुछ अधिक की परिधि है । मज्झे साइरेगाइं अट्ठारस जोयणाई परिक्खेवेणं । मध्य में अठारह योजन से कुछ अधिक की परिधि है। उप्पि साइरेगाई दुवालस जोयणाई परिक्खैवेणं ।' ऊपर बारह योजन से कुछ अधिक की परिधि है। (क्रमशः) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत का अधिपति देव 'अरुण' कहा है और स्थानांग में 'प्रभास' कहा है । इस सम्बन्ध में भी वृत्तिकार ने 'स्थानांग' का निर्देश नहीं किया है-बृहत्क्षेत्रविचारादिषु हैरण्यवते विकटापाती हरिवर्ष गन्धापातीत्युक्त, तत्त्वं तु केबलिगम्यम् ... --जम्बू० वक्ष० ४, सूत्र ८२ की वृत्ति जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति में गंबापाती वृत्तवैताढयपर्वत रम्यकवर्ष में कहा है और स्थानांग में हरिवर्ष में कहा है। इसी प्रकार गन्धापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत का अधिपति देव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में 'पद्मदेव' कहा है और स्थानांग में 'अरुण' देव कहा है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में 'माल्यवंतपर्याय वृत्तवताढ्य पर्वत' हैरण्यवत वर्ष में कहा है और स्थानांग में रम्यक्वर्ष में कहा है। इसी प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में माल्यवंत वृत्तवैताढ्यपर्वत के अधिपति देव का नाम 'प्रभास' कहा है और 'स्थानांग में पद्मदेव कहा है । इस क्रम भेद के सम्बन्ध में वृत्तिकार सर्वथा मौन है । जम्बुद्वीप के मानचित्रों में शब्दापाती आदि चारों पर्वतों के क्षेत्र इस प्रकार अंकित हैक्रम पर्वत नाम क्षेत्र नाम १. शब्दापाती पर्वत हैमवतवर्ष २. विकटापाती पर्वत हैरण्यवतवर्ष गंधापाती पर्वत ४. माल्यवंतपर्याय पर्वत रम्यावर्ष यह क्रम स्थानांग के अनुसार है१ पाठंतरं :-मूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं, मज्झे अट्ठ जोयणाई विक्वंभेणं, उप्पि चत्तारि जोयणाई विखंभेणं । मुले साइरेगाई सत्ततीसं जोयणाई परिक्वेणं, मज्झे साइरेगाइं पणवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं, उप्पि साइरेगाइं बारस जोयणाई परिक्वेवेणं । इस पाठान्तर के सम्बन्ध में वृत्तिकार का अभिमतः"वाचनाभेदस्तद्गतपरिणामान्तरमाह-मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन, मध्येऽष्टयोजनानि विष्कम्भेन, उपरि चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन अत्रापि विष्कम्भायामतः साधिकत्रिगुणं मूल-मध्यान्तपरिधिमानं सूत्रोक्तं सुबोधं । अत्राह पर :-एकस्य वस्तुनो विष्कम्भादिपरिमाणे दुरूप्यासम्भवेन"प्रस्तुतग्रन्थस्य च सातिशयस्थविरप्रणीतत्वेन कथं नान्यतरनिर्णयः? (क्रमशः) ३. गंधा हरिवर्ष
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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