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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : ऋषभकूट पर्वत
सूत्र ४०८
30हा
मूले वित्थिण्णे, मझे संखित्ते, उप्पि तणुए, गोपुच्छ वह मूल में विस्तृत मध्य में संक्षिप्त, ऊपर से पतला, गाय संठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अच्छे-जाव-पडिरूवे। की पूंछ की आकृति के समान स्थित है, सारा जम्बूनद स्वर्णमय
है स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप (सुन्दर) है । से गं एगाए पउमवरवेइयाए तहेव-जाव-भवणं । यह एक पद्मवरवेदिका से वेष्टित है-यावत्-भवन पर्यन्त
सम्पूर्ण वर्णन से युक्त है। कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसऊणं कोसं वेदिका की लम्बाई एक कोस, चौड़ाई आधा कोस तथा उड्ढं उच्चत्तेणं ।
ऊँचाई एक कोस से कुछ कम है । अट्ठो तहेव'
ऋषभकूट पर्वत के नाम का हेतु पूर्ववत् हैउप्पलाणि पउमाणि-जाव-उसभे अ एत्थ देवे महिड्ढोए "वहाँ उत्पल हैं, पद्म हैं-यावत्-ऋषभ नाम का -जाव-मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं रायहाणी तहेव जहा महधिक देव वहाँ है-यावत्-मंदरपर्वत के दक्षिण में उसकी
विजयस्स अविसे सियं ।'-जंबु० वक्ख० ४, सु० १७ राजधानी है । विजयदेव के समान इस देव का सम्पूर्ण वर्णन है। (क्रमशः) यदेकस्यापि ऋषभकूट पर्वतस्य मूलादावष्टादियोजनविस्तृतत्वादिपुनस्तत्रैवास्य द्वादशादियोजनविस्तृतत्वादीति, सत्यं-जिनभट्टार
काणां सर्वेषां क्षायिकज्ञानवतामेकमेवं मतं मूलतः । पश्चात्तु कालान्तरेण विस्मृत्यादिनाऽयं वाचना भेदः । यदुक्तं श्रीमलयगिरिसूरिभिर्योतिष्ककर ण्डव वृत्तौ-- "इह स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्ती दुष्षमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत्, ततो दुभिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघमेलापकोऽभवत्, तद्यथा-एको वलभ्यामेको मथुरायां, तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परं वाचनाभेदो जातः । विस्मृतयोहि सूत्रार्थयो स्मृत्वा स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचना द" इत्यादि । ततोऽत्रापि दुष्करोऽन्यतरनिर्णयः द्वयोः पक्षयोरुपस्थितयोरनतिशायिज्ञानिभिरनभिनिविष्ट मतिभिः प्रवचनाशातनाभीरुभिः पुण्यपुरुषरिति न काचिदनुपपत्तिः । किञ्च -सैद्धान्तिकशिरोमणि पूज्यश्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण प्रणीत-क्षेत्रसमास सूत्रे उत्तरमतमेवदर्शितं, यथागाहा-सव्वेवि उसहकूडा, उव्विद्धा अट्ठ जोयणे हुंति । बारस अट्ठ य चउरो, मूले मज्मुवरि वित्थिण्णा ॥
-जम्बू० वक्ष० १, सूत्र १७ की वृत्ति १ प०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"उसहकूडपव्वए उसहकूडपब्वए? उ० - गोयमा ! उसहकूडपब्बए खुड्डासु खुड्डियासु वावीसु पुक्खरिणीसु-जाव-बिलपंतीसु बहूई उप्पलाई पउमाई-जाव
सहस्सपत्ताई उसहकूडत्पभाई उसहकूडवण्णाभाई"। महज्जुईए-जाव - उसहकूडस्स उसहाए रायहाणीए अण्णेसि च बहूण देवाण य देवीण य अहेवच्चं-जाव-दिब्वाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरइ। से एएण?णं एवं वुच्चइ--"उसहकूडपब्बए, उसहकूडपब्वए"
-जम्वु० वक्ख० १, सु० १७ की वृत्ति २ प्रत्येक चक्रवर्ती पट्खण्डविजय यात्रा में अपना नाम ऋषभकूटपर्वत पर अंकित करता है। जम्बूद्वीप में चौंतीस चक्रवर्ती विजय
हैं अतः ऋषभकूटपर्वत भी चौतीस हैं । "एक भरतक्षेत्र में एक ऐरवतक्षेत्र में और बत्तीस महाविदेह के बत्तीस विजयों में इस प्रकार चौंतीस ऋषभकूट पर्वत हैं। यद्यपि ये चौंतीम पर्वत भिन्न क्षेत्रों में हैं फिर भी सबका नाम 'ऋषभकूट' ही है। भरत चक्रवर्ती ने ऋषभकूट पर्वत पर अपना नाम अंकित किया था, इसका वर्णन इस प्रकार है : "तरण से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ णिगिण्हित्ता रहं परावत्तेइ परावत्तित्ता जेणेव उसहकूडे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता उसहकूड पव्वयं तिक्वुत्तो रहसिरेणं पुसइ फुसित्ता तुरए णिगिण्हइ णिगिण्हित्ता रहं ठवेइ ठवित्ता छत्तल दुवालसंसि अटुकण्णि अहिगरणसंठियं सोवणियं कागणिरयण परामुसइ परामुसित्ता....उसभकूडस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लसि णामगं आउडेइ : गाहाओ-ओसप्पिणी इमीसे, तइआए समाइ पच्छिमे भाए।
अहमंसि चक्कवट्टी, 'भरहो' इअ नामधिज्जेणं ॥ अहमंसि पडमराया, अयं भरहाहिवो णरवरिंदो। णत्थि महं पडिसत्तू, जिअं मए भारहं वासं ॥
-जम्बु० वक्ख० ३, सु० ६३