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________________ २५८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : ऋषभकूट पर्वत सूत्र ४०७ जंबुद्दीवे उसभकूड-पव्वया जम्बूद्वीप में ऋषभकूट पर्वत४०७. ५०-जंबुद्दीवे णं भते ! दीवे केवइया उसभकूडा पण्णत्ता ? ४०७. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में ऋषभकूटपर्वत कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे चोत्तीसं उसभकुडापत्वया पण्णत्ता। उ०—हे गौतम ! जम्बूद्वीप में चौंतीस ऋषभकूट पर्वत कहे -जंबु० वक्ख०६, सु० १२५ गये हैं। (क्रमशः) से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं-जाव-मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं अणं मि जम्बुद्दीवे दीवे रायहाणी पण्णत्ता। से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"मालवंतपरिआए वट्टवेयड्ढपव्वए, मालवंतपरिआए वट्टवेयड्ढपव्वए"। -जम्बु० बक्ख० ४, सु० १११ [यह पाठ एक प्राचीन प्रति से उद्धृत किया है ।] (ख) वृत्त वैताढ यपर्वतस्थान एवं देव-नामों में क्रम भेद (१) जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार क्रम पर्वत नाम क्षेत्र नाम देव नाम वक्षस्कार सूत्रांक शब्दापाती पर्वत विकटापाती पर्वत गंधापाती पर्वत माल्यवंतपर्याय पर्वत हैमवतवर्ष हरिवर्ष रम्यक वर्ष हैरण्यवतवर्ष शब्दापाती देव अरुण देव पद्म देव प्रभास देव 9 90 or (२) स्थानांग सूत्र के अनुसार क्रम पर्वत नाम क्षेत्र नाम देव नाम स्थान शक | सूत्रांक शब्दापाती पर्वत विकटापाती पर्वत गंधापाती पर्वत माल्यवंत पर्याय पर्वत हैमवतवर्ष हैरण्यवतवर्ष हरिवर्ष रम्यक्वर्ष स्वाती देव प्रभास देव अरुण देव पद्म देव यह क्रमभेद स्थानांग और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में है। स्थानांग अंग आगम है और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपांग आगम है। उपांग की अपेक्षा अंग प्रधान होता है यह मान्यता सर्वमान्य है, फिर भी वृत्तिकार ने स्थानांग का निर्देशन नहीं किया जबकि उनके सामने स्थानांग निर्दिष्ट क्रम भी था । वाचनाभेद के कारण भी यह क्रमभेद नहीं है क्योंकि वाचनाभेद प्रायः एक ही आगम में एक ही पाठ के सम्बन्ध में होता है। इस क्रमभेद के सम्बन्ध में वृत्तिकार का मन्तव्य"शब्दापाती वृतवैत ढ्यपर्वत के अधिपति देव का नाम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में शब्दापाती है किन्तु स्थानांग में उसका नाम 'स्वाती' देव है---वृत्तिकार ने स्थानांग का निर्देश न करके 'क्षेत्रविचार' का निर्देश किया है। प्र०-नन् अस्य शब्दापतिवृतबैताड्ढयस्य क्षेत्रविचारादि ग्रन्थेषु अधिप: 'स्वाति' नामा उक्तः, तत्कथं न तै: सह विरोधः? उ० - उच्यते-नामान्तरं मतान्तरं वा । -जम्बू० वक्ष० ४, सूत्र ७७ की वृत्ति जम्बद्रीपप्रज्ञप्ति में हरिवर्ष में विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत कहा है और स्थानांग में हैरण्यवतवर्ष में कहा है। (क्रमशः)
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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