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________________ सूत्र १७७-१८० अधोलोक गणितानुयोग ८७ उ० [१] गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी- उ० [१] गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस उत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग रलप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन करने पर जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख अठहत्तर बज्जिऊण, मझे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से- हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में उत्तर दिशावासी सुपर्णकुमार एत्थ णं उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं चोत्तीसं देवों के चोतीसलाख भवनावास हैं-ऐसा कहा गया है। भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । ते णं भवणा बाहि बड़ा अंतो चउरंसा जाव पडि- ये भवन बाहर से वृत्ताकार हैं, अन्दर से चतुष्कोण हैं, यावत रूवा-एत्थ णं उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पज्जत्ता- प्रतिरूप हैं। यहाँ उत्तरदिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। कुमारों के स्थान कहे गये हैं। [२] तिसु बि लोगस्स असंखेज्जइमागे—एत्थ णं बहवे [२] लोक के असंख्यातवें भाग में (इनकी उत्पत्ति, समुद्घात उत्तरिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसति । तथा उनके अपने अपने स्थान) ये तीनों हैं । यहाँ पर उत्तर दिशामहिड्ढीया जाव विहरंति। वासी सुपर्णकुमार देव रहते हैं । वे महद्धिक हैं यावत् वे रहते हैं। -पण्ण० पद० २, सु० १८६ [१] । उत्तरिल्लसुवण्णकुमारिदो वेणुदाली-- उत्तर दिशा के सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदाली-- १७८ : वेणुदाली यऽत्थ सुवण्णकुमारिदे सुवण्णकुमारराया १७८ : सुपर्णकुमार राजा सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदाली यहाँ परिवसइ । महिड्ढीए सेसं जहा णागकुमाराणं। रहते हैं । वे महद्धिक हैं-शेष (सम्पूर्ण वर्णन) नागकमारों - पण्ण० पद० २, सु० १८६ [२]। जैसा है। विज्जुकुमाराईणं सत्तण्हं ठाणमाईण निरूवणं- विद्य त्कमारादि सातों के स्थानादिका निरूपण१७९ : एवं जहा सुवण्णकुमाराणं वत्तव्वया भणिया तहा १७६ : जिस प्रकार सुपर्णकुमारों का वर्णन कहा गया है . सेसाण वि चोद्दसण्हं इंदाणं भाणियव्वा उसी प्रकार शेष चौदह इन्द्रों का वर्णन भी कहना चाहिए। नवरं भवण-णाणत्तं, विशेष-भवनों की संख्या भिन्न भिन्न है। इंद-णाणत्तं, इन्द्रों के नाम भिन्न भिन्न हैं। वण्ण-णाणत्तं, (भवनवासी देवों के) वर्ण भिन्न भिन्न हैं। परिहाण-णाणत्तं च। (भवनवासी देवों के) परिधानों का वर्ण भिन्न भिन्न हैं। -पण्ण० पद० २, सु० १८७ । भवणवासिदेवाण भवणसंखा पमाण य भवनवासी देवों के भवनों की संख्या और उनका प्रमाण१८०प० केवतिया गं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सा १८०प्र० भगवन् ! असुकुमारों के कितने लाख आवास कडे पन्नत्ता? गये हैं ? उ० गोयमा! चोसढि असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता। उ. गौतम ! असुरकुमारों के चौसठलाख आवास कहे गये हैं। प० ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? प्र० भगवन् ! क्या वे संख्येय विस्तार वाले हैं या असंख्येय विस्तार वाले हैं? उ० गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि। उ. गौतम ! संख्येय विस्तार वाले हैं और असंख्येय विस्तार --भग० स० १३, उ० २, सु० ३-४। वाले भी हैं। १. यहाँ "इमाहि गाहाहि अणुगंतव्वं" ऐसा सूचना पाठ है और नीचे सात गाथायें हैं-इनमें से भवनसंख्यासुचक प्रारम्भ की चार गाथायें -'भवणवासिदेवाणं भवणसंखा पमाणं य" इस शीर्षक के नीचे दिये गये मूलपाठ के पश्चात् दी गई है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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