SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८ गणितानुयोग : भूमिका इससे असंख्यात हजार योजन नीचे जाने पर पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी अन्तमुहूर्त में ही उनके शरीर का पूरा निर्माण हो जाता है और है। इसकी मोटाई एक लाख बीस हजार योजन है। इसका तल वे उत्पन्न होते ही ऊपर की और पैर तथा अधोमुख होकर नीचे भाग मध्यलोक से चार रज्जु नीचा है। पांचवीं पृथ्वी से असंख्यात नरक भूमि पर गिरते हैं। हजार योजन नीचे जाने पर छठी तमःप्रभा पृथ्वी है । इसकी सातवीं पृथ्वी के नीचे एक राजु-प्रमाण मोटे और सात मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन है। इसका तल भाग ___ राजु-विस्तृत क्षेत्र में केवल एकेन्द्रिय जीव ही रहते हैं। मध्यलोक से पाँच रज्जु नीचा है । छठी पृथ्वी से असंख्यात हजार ३-मध्यलोक योजन नीचे जाने पर सातवीं महामतःप्रभा पृथ्वी है । इसकी मोटाई एक लाख आठ हजार योजन है। इसका तल भाग मध्यलोक का आकार झल्लरी या चूड़ी के समान गोल है। मध्यलोक से छह राजु नीचा है। इसके सबसे मध्य भाग में एक लाख योजन विस्तृत जम्बूद्वीप है। - रत्नप्रभा पृथ्वी के एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण क्षेत्र इसे सर्व ओर से घेरे हुए दो लाख योजन विस्तृत लवण समुद्र है। में से ऊपर नीचे के एक-एक हजार योजन भाग को छोड़कर मध्य इसे सर्व ओर से घेरे हुए चार लाख योजन विस्तृत धातकीखण्ड वर्ती क्षेत्र में ऊपर भवनवासियों के सात करोड़ बहत्तर लाख द्वीप है। इसे सर्व ओर से घेरे हुए आठ लाख योजन विस्तृत भवन हैं, तथा नीचे नारकियों के तीस लाख नारकाबास हैं। कालोद समुद्र है। इसे सर्व ओर से घेरे हुए सोलह लाख योजन किन्तु त्रिलोकपज्ञति, तत्त्वार्थ-वात्तिक आदि दि० ग्रन्थों में इससे । विस्तृत पुष्कर द्वीप है । इस पुष्कर द्वीप के ठीक मध्य भाग में भिन्न उल्लेख पाया जाता है। मोल आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। इससे परवर्ती पुष्करार्ध दूसरी पृथ्वी के ऊपर नीचे एक-एक हजार योजन भूमि- द्वीप में तथा उससे आगे के असंख्यात द्वीप समुद्रों में वैक्रिय लब्धि भाग को छोड़कर मध्यवर्ती भाग में नारकों के २५ लाख नार- संपन्न या चारणमुनि के अतिरिक्त अन्य मनुष्यों का आवागमन कावास हैं । इसी प्रकार तीसरी से लगाकर सातवीं पृथ्वी तक नहीं हो सकता, ऐसी श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है। किन्तु उनकी मोटाई के ऊपर नीचे के एक-एक हजार योजन भाग को दिगम्बर-सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार ऋद्धि-सम्पन्न मनुष्य छोड़कर मध्यवर्ती भागों के क्रमशः १५ लाख, १० लाख, ३ लाख भी नहीं आ जा सकते हैं। पाँच कम १ लाख और ५ नारकावास है। ये नारकावाश पटल पुष्कर द्वीप को घेर कर उससे दूने विस्तार वाला पुष्करोद या पाथड़ों में विभक्त हैं । पहली आदि पृथ्वी में क्रमशः १३, ११, समुद्र है । पुनः उसे घेर उत्तरोत्तर दूने दूने विस्तार वाले वरुणवर है, ७, ५, ३ और १ पटल हैं। इस प्रकार सातों पृथिवियों के द्वीप-वरुणवर समुद्र, क्षीरवरद्वीप-क्षीरोदसागर, घृतवरद्वीप-घृतवर नारकावासों के ४६ पटल हैं । इन ४६ पटलों में विभक्त सातों पृथि- समुद्र, क्षोदवरद्वीप-क्षोदवर समुद्र, नन्दीश्वरद्वीप-नन्दीश्वरवर वियों के नारकावासों का प्रमाण ८४ लाख है, जिनमें असंख्यात समुद्र आदि नाम वाले असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। सबसे नारकी जीव सदाकाल अनेक प्रकार के क्षेत्रज परस्परोदीरित, अन्त में असंख्यात योजन विस्तृत स्वयम्भूरमण समुद्र है । शारीरिक, मानसिकों दुःखों को भोगा करते हैं। इन नरकों में इस असंख्यात द्वीप-समृद्रों वाले मध्य लोक के ठीक मध्य में कर कर्म करने वाले पापी मनुष्य और पशु-पक्षी तिर्यच उत्पन्न जो एक लाख योजन विस्तृत जम्बूद्वीप है उसके भी मध्य भाग में होते हैं । वे पहली पृथ्वी में कम से कम १० हजार वर्ष की आयु मूल में दस हजार योजन विस्तार वाला और एक लाख योजन से लेकर सातवीं पृथ्वी में ३३ सागरोपम काल तक नाना दुःखों ऊँचा मेरु पर्वत है। इसके उत्तर दिशा में अवस्थित उत्तरकुरु में को उठाया करते हैं। उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। उनका एक अनादि-निधन पार्थिव जम्बू-वृक्ष है, जिसके निमित्त से ही शरीर वैक्रियिक और औपपातिक होता है । जन्म लेने के पश्चात इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा है । इस द्वीप का विभाजन करने १. दि० परम्परा में शर्करा आदि पृथिवियों की मोटाई क्रमशः ८००००, ३२०००, २८०००, २४०००, २००००, १६००० और ____८००० योजन मानी गई है । तिलोयपण्णत्ति में 'पाठान्तर' देकर उपर्युक्त मोटाई का भी उल्लेख है। २. देखो प्रस्तुत ग्रन्थ का सूत्र १५६ । । ३. देखो प्रस्तुत ग्रन्थ का सूत्र १२७ । ४. दिगम्बर परम्परा के अनुसार रत्नप्रभा के तीन भागों में से प्रथम भाग के एक-एक हजार योजन क्षेत्र को छोड़कर मध्यवर्ती १४ हजार योजन के क्षेत्र में किन्नर आदि सात व्यन्तर के देवों के, तथा नागकुमार आदि नौ भवनकासी देवों के आवास हैं। तथा रत्नप्रभा के दूसरे भाग में असुरकुमार, भवनपति और राक्षस व्यन्तरपति के आवास हैं। रत्नप्रभा के तीसरे भाग में नारकों के आवास हैं। (देखो तिलोयपण्णत्ति अ०३ मा० ७ । तत्त्वार्थवार्तिक अ० ३, सू०१)
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy