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प्रथम संस्करण की भूमिका (क) जैन मान्यतानुसार लोक-वर्णन
पं० हीरालाल शास्त्री अनन्त आकाशं के ठीक बीचों-बीच यह हमारा लोक भव- और तनुवात इन तीन वलयों से वेष्टित है । अर्थात् इनके आधार 'स्थित है, जो नोचे पल्यंक के सदृश, मध्य में वज्र के समान और पर अवस्थित है। प्रथम वलय अधिक सघन है, अतः इसे घनोदधि
ऊपर खड़े मृदंग के तुल्य है । यह लोक नीचे विस्तीर्ण, मध्य में कहते हैं । दूसरा वलय तीसरे वलय की अपेक्षा सघन है, अतः उसे - संक्षिप्त और ऊर्ध्वमुख मृदंग के समान हैं । यह सब मिलकर लोक धनवात कहा गया है। तीसरा वलय उक्त दोनों की अपेक्षा का आकार पुरुष के आकार का सा हो जाता है। जैसे कोई पुरुष ___ अत्यन्त सूक्ष्य या पतला है, इसलिये इसे तनुवात कहते हैं । अपने दोनों पैरों को फैलाकर और दोनों हाथों को कटि पर रख
२-अधोलोक • कर खड़ा हो, तो उसका जैसा आकार होगा, ठीक इसी प्रकार - लोक का आकार है । अथवा आधे मृदंग के ऊपर पूरे मृदंग को रखने कटि-स्थानीय झल्लरी के समान आकार वाले मध्यलोक के • पर जैसा आकार होता है, वैसा आकार लोक का समझना चाहिए। नीचे सात पृथिवियाँ हैं-घम्मा, वंशा, सेला, अंजना, अरिष्टा, • कटि के नीचे के भाग को अघो-लोक, ऊपर के भाग को ऊर्ध्व- मघा और माघवती । रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, लोक और कटि-स्थानीय भाग को मध्य-लोक कहते हैं । इस तीन धूमप्रभा, तमःप्रभा और महामतःप्रभा-इनके गोत्र कहे गये हैं। विभाग वाले लोक को लोकाकाश कहा जाता है, क्योंकि इसके इनमें से पहली रत्नप्रभा के तीन भाग हैं-खरभाग, पंकभाग 'भीतर ही जीव-पुद्गलादि सभी चेतन ओर अचेतन द्रव्य पाये जाते __और अब्बहुलभाग । इनमें खरभाग सोलह हजार योजन मोटा है।
हैं । इस लोकाकाश के सर्व ओर पाये जाने वाले अनन्त आकाश पंकभाग चौरासी हजार योजन और अब्बहुलभाग अस्सी हजार - को अलोकाकाश कहते हैं, क्योंकि इस में केवल आकाश के अति- योजन मोटा है। इस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख • रिक्त अन्य कोई चेतन या अचेतन द्रव्य नहीं पाया जाता है। अस्सी हजार योजन है। इस तीन विभाग वाली रत्नप्रभा पृथ्वी
के नीचे असंख्यात हजार योजन के अन्तराल के बाद दूसरी शर्करा १-सामान्य लोक-स्वरूप
पृथ्वी है। यह एक लाख बत्तीस हजार योजन मोटी है। इसके लोकाकाश की ऊँचाई १४ राजु है । यह अधोलोक में सबसे नीचे पुनः असंख्यात हजार योजन नीचे जाकर तीसरी बालुका नीचे सात राजु विस्तृत है । पुनः क्रम से घटता हुआ कटि स्था- पृथ्वी हैं। इसकी मोटाई एक लाख अट्ठाईस हजार योजन है। -नीय मध्य-भाग में एक राजु विस्तृत है। इससे ऊपर क्रम से बढ़ता इस तीसरी पृथ्वी का तल भाग मध्यलोक से दो रज्जु प्रमाण नीचा
हुआ दोनों हाथों में कोहिनी-स्थान.पर पांच राजु विस्तृत है । पुनः है। तीसरी पृथ्वी से असंख्यात हजार योजन नीचे जाकर चौथी - क्रम से घटता हुआ शिरःस्थानीय लोक के अग्र-भाग पर एक पंकप्रभा पृथ्वी है । इसकी मोटाई एक लाख चौबीस हजार योजन
राजु विस्तृत है। यह समस्त लोक सर्व ओर धनोदधि, घनवात है। इस पृथ्वी का तल भाग मध्यलोक से तीन राजु नीचा है।
१.. देखो प्रस्तुत ग्रन्थ का सूत्र २८ । तिलोयपण्णत्ती, अ०.१ गा० १३७-३८ ।
उन्भिय दलेक्कमुरवद्धसंचयसपिणहो हवे लोगो । (त्रिलोकसार गा. ६) २. चोद्दस रज्जूदयो लोगो (त्रिलोकसार गा० ६) जगसेढिसत्तभागो रज्जु । (त्रिलोकसार गा० ७) ...चउदसरज्जू लोओ बुद्धिकओ. होइ सत्तराजुघणो । कर्मग्रन्थ. ५-६७ ... सयंभुपरिमंताओ अवरंतो जाव रज्जूमाइओ। (प्रवचनसारो० १४३, ३१) राजु का प्रमाण जगच्छे णी के सातवें भाग बराबर है
जो कि स्वयम्भूरमण द्वीप के पूर्व-भाग से लेकर पश्चिमभाग पर्यन्त के प्रमाण है । एक राजु में असंख्यात योजन होते हैं । १३...दि०. शास्त्रों में धनोदधिवात.का वर्ण गोमूत्र-सम, घनवात का मूंग-समान और तनुवात का अव्यक्त वर्ण कहा है।