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________________ २५४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : दीर्घ वैताढय पर्वत सूत्र ४००-४०१ अदुत्तरं च णं गोयमा! दीहवेयड्स्स पब्वयस्स सासए इसके अतिरिक्त, गौतम ! दीर्घ वैताढ्य पर्वत का यह नाम णामधेज्जे पण्णत्ते, जं न कयाइ, न आसि-जाव-णिच्चे। शाश्वत है । अथवा यह न कभी नहीं था, न भी नहीं है, न कभी -जंबु० वक्ख० १, सु० १५ नहीं होगा। यह था, है और रहेगा। यह नाम ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अवस्थित है, नित्य है। कच्छविजए दोहवेयड ढपव्वए कच्छविजय का दीर्घ वैताढ्य पर्वत४०१.५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे ४०१. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप महाविदेह वर्ष के कच्छविजय विजए दोहवेयड्ढे णामं पव्वए पण्णत्ते ? में दीर्घ वैताढ्य नामक पर्वत कहाँ है ? उ०-गोयमा ! दाहिण कच्छविजयस्स उत्तरेणं, उत्तरद्ध- उ०-गौतम ! दक्षिणार्ध कच्छविजय के उत्तर में, उत्तरार्ध कच्छविजयस्स दाहिणेणं, चित्तकूडस्स पव्वयस्स कच्छ (विजय) के दक्षिण में, चित्रकूट के पश्चिम में एवं माल्यवंत पच्चत्थिमेणं, मालवंतस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं, वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में कच्छविजयस्थित दीर्घ वैताढ्य नामक एत्थ णं कच्छे विजए दोहवेयड्ढे णाम पव्वए पण्णत्ते।' पर्वत है । पाईण-पडिणायए, उदीण-दाहिण-वित्थिण्ण । यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। दुहा वक्खारपव्वए पुट्ठ। दो ओर से वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है । पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं वक्खारपब्वयं, पूर्व की ओर से पूर्वी वक्षस्कार एवं पश्चिम की ओर से पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्ल वक्खारपध्वयं । पश्चिमी वक्षस्कार से स्पृष्ट है। एवं दोहि वि पुढे, भरह-दीह-वेयड्ढसरिसए । यह भरतवर्ष के दीर्घ वैताढ्य के समान है । णवरं-दो बाहाओ, जीवा धणुपुटुं च ण कायव । अन्तर इतना है कि इसके दो भुजाएँ व जीवा है, किन्तु धनुपृष्ठ नहीं है। विजयविक्खं भसरिसे आयामेणं५ विक्खंभो उच्चत्तं, यह विजय के समान ही लम्बा, चौड़ा, ऊँचा और गहरा उव्वेहो तहेवं च विज्जाहरआभिओगसेढीओ तहेव। है। इस पर भी उसी प्रकार विद्याधरों एवं आभियोगिक देवों की श्रेणियां हैं। णवरं-पणपण्णं पणपण्णं विज्जाहर-णगरावासा पण्णात्ता। विशेषता यह है कि यहां विद्याधरों के पचपन-पचपन नगरा वास हैं। आभिओगसेढीए उत्तरिल्लाओ सेढीओ, सीआए आभियोगिक श्रेणियों में से शीता महानदी के उत्तर की ईसाणस्स, सेसाओ सक्कस्स ति*। श्रेणियों का स्वामी ईशानेन्द्र तथा शेष (शीता महानदी के दक्षिण) -जम्बु० वक्ख० ४ सु०६३। का (स्वामी) शक्रेन्द्र है। १ कच्छस्य विजयस्य बहुमध्यदेशभागे दीर्घवैताढ्यः पर्वतः प्रज्ञप्तः, यःकच्छं विजयं द्विधा विभजं विभस्तितिष्ठति, तद्यथा-दक्षिणार्ध कच्छ चोत्तरार्धकच्छं च । च शब्दौ उभयोस्तुल्यकक्षताद्योतनाथौँ । २ पूर्वया कोट्या, पोरस्त्यं वक्षस्कारं चित्रकूटं नामानं पाश्चत्यया कोट्या पाश्चत्यं वक्षस्कारं माल्यवन्तं, अतएव द्वाभ्यां कोटिभ्यां स्पृष्ट:.... ३ भरत-दीर्घवंताव्यसदृशकः रजतमयत्वात् रुचकसंस्थानसंस्थितत्वाच्च । ४ नवरं-द्र बाहे, जीवा धनुःपृष्ठं च नकर्तव्यमवक्रक्षेत्रवर्तित्वात् । ५ लम्बभागश्च न भरतवैताढ्यसदृश इत्याह-विजयस्य कच्छादेर्यो विष्कम्भः किंचिदूनत्रयोदशाधिकद्वाविंशतिशतयोजनरूपस्तेन सदृश इत्याह-विजयस्य यो विष्कम्भ भागः सोऽस्यायामविभाग इति.... ६ ...विष्कम्भः-पंचाशयोजनरूपः, उच्चत्वं-पंचविंशतियोजनरूपं । उद्वेधः पंचविंशतिक्रोशात्मकस्तथैव-भरतवैताड़यवदेवेत्यर्थः.... विद्याधर श्रेणिभ्यामूर्ध्व दशयोजनातिक्रमेदक्षिणोत्तरभेदेन द्वे भवतः अत्राधिकारात् सर्ववैताढ्याभियोग्यश्रेणिविशेषमाह-उत्तर दिस्था आभियोग्यश्रेणयः शीताया महानद्या ईशानस्य-द्वितीयकल्पेन्द्रस्य । शेषा:-शीतादक्षिणस्थाः शक्रस्य-आद्यकल्पेन्द्रस्य । -जम्बू० वृत्ति
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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