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सूत्र ३६७-४००
तिर्यक् लोक दीर्घवताढ्य पर्वत
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उमओ पास दोहि परमवरवयाहि वोह व वणसंडेहि सव्वओ समता संपरिक्खित्ते ।
ताओ णं परवेश्याओं
उप त्तेणं, पंचधणुसयाई विवखंभेणं, पव्वयस मियाओ आया मेणं वण्णओ भाणियव्वो ।
तेणं वणसंडा देसूणाई दो जोयणाडं विक्खंभेणं, पउमवरवेइया समगा....आया मेणं, किण्हा किण्होभासा -जाववण्णओ । - जंबु० वक्ख० १, सु० १३ दीपयसिहरतलस्स अबट्टिई पमाणं च
३८. तास भोगलेढी बहुसमरमज्जा भूमिभाव दीवेयड्ढस्स पथ्वयस्स उभओ पासि पंच पंच जोयणाई उड्ढ उप्पइत्ता - एत्थ णं दीहवेयड्ढस्स पथ्वयस्स सिहरतले पण्णत्ते पाईण-पडीणायए, उदीण दाहिणवित्थिण्णे, दस जोयणाइ विक्वं भेणं, पव्वयसमगे आयामेणं ।
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उ०- गोयमा ! बहुसमरमणि भूमिमागे पत्ते से जहा
नाम लिंगपुक्ख इ वा जाव णाणाविह पंचवण्णेहि मणीहि उबसोचिए जाय-बायीओ क्खरिणी-जान वाणमंत देवाय देवीओ व आसतिगाव जमाना विहरति ।
- जंबु० वक्ख० १, सु० १२
दीपड दपव्ययरस णामहेऊ ४०० प० सेकेणणं भंते ! एवं वुच्चइ "दीवेयड्ढे पव्वए, दीपाए ?
उ०- गोयमा ! दीहवेयड्ढे णं पव्वए भर वासं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, तं जहा -१ दाहिणड्ढभरहं च, २ उत्तरड्डभरहं च । दीवेढगिरिकुमारे अ देवे महिड्ढीए-जाव- पलिओधमट्टिए परिवस ।
से रोग गं गोवमा ! एवं पद दीहवे यह पचए. दोवेव पचए।"
गणितानयोग
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इसके दोनों पाश्यं दो पद्मवर वेदिकाओं से तथा दोनों से चारों ओर से घिरे हैं ।
ये पद्मवेदिकाएँ अर्ध योजन ऊँची, पाँच सौ धनुष चौड़ी एवं पर्वत जितनी लम्बी हैं । इनका वर्णन कह लेना चाहिए ।
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वनखण्ड दो योजन से कुछ कम चौड़े पद्मवरवेदिका जितने लम्बे, कृष्णवर्ण एवं कृष्ण आभास वाले हैं - यावत् - इनका भी वर्णन समझ लेना चाहिए ।
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दीर्घवैताढ्य पर्वत के शिखरतल की अवस्थिति और
प्रमाण
३२८. इन अभियोगकयों के अति सम और रमणीय भूमि भाग से दीर्घ वैताढ्य पर्वत के दोनों ओर पाँच-पाँच योजन ऊपर जाने पर दीर्घ वैताढ्य पर्वत का शिखर तल आता है ।
से णं इक्काए पउमवरवेइयाए, इक्केणं वणसंडेणं सव्वओ, समता संपरिक्खित्ते, पमाणं वण्णओ दोण्हं पि ।
- जंबु० वक्ख० १, सु० १२ दीवेय] हृदयसिहरतलस्स आधारभावो
दीर्घता पर्वत के शिखर तल का आकारभाव
३६६. प० - दोहवेयड्ढस्स णं भंते ! पव्वयस्स सिहरतलस्स के रिसए १६६. प्र० - भगवन् ! दीर्घ वैताढ्य पर्वत के शिखर तल का
आयारभाव पडोयारे पण्णत्ते ?
स्वरूप कैसा है ?
यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में फोड़ा है। इसकी चौड़ाई दस योजन की ओर लम्बाई पर्वती है।
इसके चारों ओर एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड समान भाग वाला है । इन दोनों का प्रमाण और वर्णक समझ लेना चाहिए।
उ०- गौतम ! इसका भाग अति सम एवं रमणीय है । वह आलिंगपुष्कर ( मृदंग पर मढ़े हुए चमड़े) के समान समतल - यावत् नानाविध पंचवर्ष मणियों से सुशोभित है- पात् वापिकाओं तथा पुष्करिणियों से युक्त है- बायाँ वाण व्यंतरदेव एवं देवियाँ बैठते - यावत्-भोग भोगते हुए विचरते हैं ।
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दीर्घ वेलाढ्य नाम का हेतु
!
४०० प्र० - भगवन् दीर्घ नाट्य पर्वत दीर्घ पर्वतस्यों कहा जाता है ?
उ०- गौतम दीपं तापत भरतवर्ष को दो भागों में विभक्त करता है, यथा-दक्षिणार्ध भरत और उत्तरार्धं भरत ।
और यहाँ दी तानिरिकुमार नामक देव रहता है जो महद्धिक - यावत् - पल्योपम की स्थिति वाला है ।
इस कारण गौतम ! इसे दीर्घ वैताढ्य पर्वत करते हैं ।