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________________ सूत्र २०५-२०६ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १८५ दलइत्ता जेणेव मुहमंडवगस्स उत्तरिल्ला णं खंभपंती तेणेव धूप जलाकर जहां मुखमंडप की उत्तर दिशावर्ती स्तम्भ उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामूसति सालभजि- पंक्ति थी, वहाँ आया, वहाँ आकर मयूर पिच्छी से शालभंजिकाओं याओ दिव्वाए उदगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं पुप्फा- आदि का प्रमार्जन किया, दिव्य जलधारा का सिंचन किया, सरस रुहणं-जाव-आसत्तोसत्त-जाव-मुक्क-पुप्फ-पुञ्जोवयारकलियं गोशीर्ष चन्दन से मंडल बनाया, पुष्प चढ़ाये - यावत्-लम्बी करे। मालायें पहनाईं-यावत्-उन्मुक्त, खिले हुए पुष्प पुजों से पूजा की, पूजा करके धूप जलाई ; करित्ता धूवं दलयइ, दलइसा जेणेव मुहमंडवस्स पुरित्थि- धूप जलाकर जहाँ मुखमंडप का पूर्वी द्वार था वहाँ आया, मिल्ले दारे तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव दारस्स अच्चणिया, इत्यादि उसका सर्व वर्णन पहले किये गये वर्णन के अनुसारजेणेव दाहिणिल्ले दारे तं चेव। यावत्-द्वार की अर्चना की; पद तक करना चाहिये, तत्पश्चात् दक्षिण द्वार का भी इस प्रकार वर्णन करना चाहिये। २०६. जेणेव पेच्छाघरमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए, जेणेव वइरामए २०६. जहाँ प्रेक्षागृह मंडप का अतिमध्य देशभाग था, जहाँ अक्खाडए, जेणेव मणिपेढिया, जेणेव सीहासणे तेणेव उवा- वज्ररत्नों का बना अखाड़ा था, जहाँ मणिपीठिका थी, जहाँ गच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गिण्हइ, गिहित्ता अक्खा- सिंहासन था, वहाँ आया, वहाँ आकर मयूरपिच्छिका ली, मयूरडगं च सोहासणं च लोमहत्थगेण पमज्जइ, पमज्जित्ता दिवाए पिच्छिका लेकर अक्षवाटक अखाड़े-व्यायामशाला, और सिंहासन उदगधाराए अब्भुक्खेइ, अन्भुक्खिता पुष्फारुहणं-जाव-धूवं का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके दिव्य जलधारा से सिंचन दलया। किया, सिंचन करके पुष्प चढ़ाये -यावत्-धूप जलाई । जेणेव पेच्छाघर मंडव-पच्चस्थिमिल्ले दारे दारच्चणिया। जहाँ प्रेक्षागृह मंडप का पश्चिमी द्वार था वहाँ आया, इत्यादि द्वार-अर्चना का वर्णन पूर्व की तरह यहाँ भी करना चाहिये। उत्तरिल्ला खंभपंती तहेव, पुरिथिमिल्ले दारे तहेव, जेणेव इसी प्रकार से उत्तर दिग्वर्ती स्तम्भ पंक्ति का भी पूर्व दिशा दाहिणिल्ले दारे तहेव । के द्वार का भी वर्णन करना चाहिये, जहाँ दक्षिणी द्वार था, उसका भी इसी प्रकार समस्त वर्णन कर लेना चाहिये । २०७. जेणेव चेइयथभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं २०७. जहाँ चैत्य स्तम्भ था, वहाँ आया, वहाँ आकर मयूरपिच्छी गेहइ, गेप्हित्ता चेइयथूभं लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता को लिया, लेकर उस मयूरपिच्छी से चैत्य स्तम्भ का प्रमार्जन दिव्वाए उदगधाराए; सरसेणं गोसीसचंदणेण; पुप्फारुहणं, किया, प्रमार्जन करके दिव्य उदगधारा से सिंचन किया, सरस आसत्तोसत्त० जाव धूवं दलयइ । गोशीर्ष चन्दन से मांडना मांडा, पुष्प चढ़ाये, अच्छी बड़ी लटकती हुई मालाओं को पहनाया-यावत -धूप जलाई । २०८. जेणेव पच्चथिमिल्ला मणिपेढिया-जेणेव जिण-पडिमा २०८. जहाँ पश्चिम दिशावर्ती मणिपीठिका थी, जहाँ जिनप्रतिमा तेणेव उवागच्छइ, जिणपडिमाए आलोए पणामं करेइ, थी वहाँ आया, आकर जिनप्रतिमा के दर्शन कर प्रणाम किया, करिना लोमहत्थगं गेहइ, गेण्हित्ता तं चेव सवं ज जिण- प्रणाम करके मयूर पिच्छी को लिया, लेकर इत्यादि जिनप्रतिमा पडिमाणं जाव सिद्धि गइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं वंदइ णमंसइ । सम्बन्धी समग्र वर्णन-यावत्-सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त भगवन्तों को वन्दना नमस्कार किया, इस पद तक पूर्व की तरह कहना चाहिये। एवं उत्तरिहलाए वि; एवं पुरिथिमिल्लाए वि० एवं इसी प्रकार से उत्तर दिशा भाग का भी पूर्व दिग्भाग का दाहिणिल्लाए वि। भी और दक्षिण दिशा भाग का भी वर्गन करना चाहिये । २०६. जेणेव चेयरुक्खा दारविही य मणिपेढिया, जेणेव महिंदज्झए २०६. जहाँ चैत्यवृक्ष थे, द्वार थे, मणिपीठिका थी, तथा माहेन्द्र दार विही। ध्वज और द्वार थे. उस सम्बन्धी विधान आदि का वर्गन पूर्व के समान करना चाहिये।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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