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१८४ - लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
सूत्र २०५
ठाणं संपत्ताणं" ति कटु वंदइ णमंसइ' वंदित्ता णमंसित्ता प्राप्त भगवन्तों को मेरा नमस्कार हो, ऐसा कहकर उसने वन्दन जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए रेणेव उवागच्छइ, और नमस्कार किया, वन्दना, नमस्कार करके जहाँ सिद्धायतन उवागच्छित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खइ, अब्भुक्खित्ता का मध्यातिमध्य भाग है, वहाँ आया, वहाँ आकर दिव्य उदकसरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलं आलिहइ, धारा-जलधारा से सिंचन किया, सिंचन करके सरस गोशीर्ष आलिहिता वच्चए दलयइ, दलइत्ता कयग्गाहग्गहिय करयल- चन्दन से हाथों को लिप्त करके मंडल का आलेखन किया, पभट्ट विमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं मुक्कपुष्फ-पुञ्जो- आलेखन करके अर्चना की, अर्चना करके केशपाश को झेलने जैसे वयारकलियं करेइ, करित्ता धूवं दलयइ ।
हाथों में से गिरे हुए पुष्पों को छोड़कर शेष पंचरंगे उन्मुक्त खिले
हुए पुष्पों के पुज करके पूजा की, पूजा करके धूप जलाई। दलयित्ता जेणेव सिद्धाययणस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव धूप जलाकर जहाँ सिद्धायतन का दक्षिण द्वार था, वहाँ उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थयं गेण्हइ, गेण्हित्ता दार- आया, आकर मयूरपिच्छी को लिया, मयूरपिच्छी को लेकर चंडीयाओ य सालभंजियाओ य बालरूवए य लोमहत्थएणं द्वार चेटिकारूप-ड्योड़ीदार शाल भंजिकाओं-काष्ठ पुतलियों और पमज्जड, पमज्जित्ता बहुमज्झदेसभाए सरसेणं गोसीस चंदणेणं व्याल रूपों का मयूरपिच्छी से प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके पंचंगुलितलेणं अणुलिपइ, चच्चए बलयइ, दलइत्ता पुष्फारुहणं अतिमध्य देश भाग में सरस गोशीर्ष चन्दन से पांचों अंगुलियों के -जाव-आभरणाहणं करेइ, करित्ता आसत्तोसत्तविउल वट्ट थापे लगाये, थापे लगाकर अर्चना की, अर्चना करके पुष्पों को वग्धारिय-मल्ल-दाम-कलावं करेइ, कयग्गाहगहिय करयल- चढ़ाया-यावत्-आभरणों को चढ़ाया, पुष्पों आदि को चढ़ाकर पन्भट्ठविमुक्केणं दसवण्णणं कुसुमेणं मुक्क पुष्फ पुजोवयार ऊपर से नीचे लटकती हुई ऐसी लम्बी वर्तुलाकार मालाओं को कलियं करेइ, करेत्ता, धूवं बलयइ, दलइत्ता जेणेव मुहमंड- पहनाकर केशपाश को ग्रहण करने रूप हाथ के आकार में से गिरे वस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोम- हुए पुष्पों को छोड़कर शेष पंचरंगे उन्मुक्त खिले हुए पुष्पों के पुज हत्थेणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिवाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ, करके पूजा की, पूजा करके धूप जलाई, धूप जलाकर जहाँ मुख अब्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं मंडप का मध्य भाग था, वहाँ आया, वहाँ आकर मयूरपिच्छी आलिहइ, आलिहित्ता चच्चए दलयइ, दलइत्ता कयग्गाहग्ग- से प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके दिव्य जलधारा से सिंचन करके हिय-करयलपन्भट्ठ-विमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं मुक्क सरस गोशीर्ष चन्दन से हाथों को लिप्त करके मंडल का आलेखन पुष्फ पुजोवयारकलियं करेड, करित्ता धूवं दलयइ । किया, आलेखन करके अर्चना की, अर्चना करके केशपाश ग्रहण
करने रूप हाथों के आकार से गिरे हुए पंचरंगी पुष्पों को छोड़कर शेष खिले हुए पुष्प पुजों से पूजा की, पूजा करके धूप प्रक्षेप
किया। दलइत्ता जेणेव मुहमंडवस्स पच्चथिमिल्ले दारे तेणेव धूप प्रक्षेपण करके जहाँ मुख मंडप का पश्चिमी द्वार था, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेहइ, गेण्हित्ता दार- वहाँ आया, वहाँ आकर मयूरपिच्छी को लिया, मयूरपिच्छी को चंडीओ य सालभंजियाओ य बालरूवए य लोमहत्थगेण लेकर द्वार चेटिका रूप शालभंजिकाओं और व्याल रूपों का पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अन्भुक्खेइ, अब्भु- मयूरपिच्छी से प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके दिव्य जलधारा से क्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं सिंचन किया, सिंचन करके सरस गोशीर्ष चन्दन से हाथों को आलिहइ, आलिहित्ता चच्चए दलयइ, दलयित्ता आसत्तोसत्त लिप्त कर मंडल-मांडना बनाया, मांडना बनाकर अर्चना की, विउल बट्ट बग्धारिय मल्लं दामकलावं करेइ, करित्ता अर्चना करके ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी गोल मालाओं कयग्गाहगहिय करयल पब्भट्ट विमुक्केणं दसद्धवणेणं कुसुमेणं को पहनाया, पहनाकर केशपाश झेलने रूप हाथों के आकार विशेष मुक्क पुष्फ पुञ्जोवयारकलियं करेइ, करित्ता धूवं दलयइ। से गिरे हुए पुष्पों को छोड़कर शेष पंचवर्णीय खिले हुए पुष्पों के
पुज द्वारा पूजा की, पूजा करके धूपदान में धूप जलाई । विजय देव के इस वर्णन में जिनप्रतिमाओं का और उनकी पूजा का विस्तृत वर्णन है। यह वर्णन आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में प्रतिपादित अहिंसा विधान से सर्वथा विपरीत है क्योंकि जिन पूजा में धूप, दीप, पुष्प आदि का प्रयोग निरवद्य नहीं है और सावध आराधना से जन्म, जरा, मरण के दुःखों से मुक्तिरूप-निर्वाण असंभव है। बहुत संभव है, जैन परम्परा में भक्तिमार्ग की स्थापना एवं सुव्यवस्था के लिए चैत्यवासी आचार्यों ने ऐसे वर्णन किये हैं।