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सूत्र २०५
तिर्यक् लोक :विजयद्वार
गणितानुयोग । १८३
अण्णेहि य बहहिं वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धि संपरि- यावत्-और दूसरे बहुत से बाण-व्यंतर देवों और देवियों से बुडे सविड्ढीए-जाव-णिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे संपरिवृत होकर समस्त ऋद्धि-यावत्-वाद्यों के ध्वनिघोप के तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिद्धाययणं अणुप्पयाहिणी साथ जहाँ सिद्धायतन था, वहाँ आया, वहाँ आकर सिद्धायतन की करेमाणे करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुप- प्रदक्षिणा करते हुए पूर्व दिशावर्ती द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ, विसित्ता जेणेव देवच्छदए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता प्रवेश करके जहाँ देवच्छन्दक था वहाँ आया, देवच्छन्दक के आलोए जिणपडिमाणं पणाम करेइ,
पास आकर दर्शन किये और फिर जिन प्रतिमाओं को प्रणाम किया।
करित्ता लोमहत्थगं गेहइ, गेण्हित्ता जिणपडिमाओ लोम- प्रणाम करके मयूर पिच्छी ली, मयूरपिच्छी को लेकर उससे हत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता सुरभिणा गंधोदएणं हाणेइ, जिन प्रतिमाओं का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके सुवासित गंधोपहाणित्ता दिवाए सुरभिगंधकासाइए गायाई लू हेइ, लूहित्ता दक से न्हवन-अभिषेक किया, अभिषेक करके दिव्य एवं सुरभिगंध सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाणि अणुलिपइ, अणुलिपेत्ता से युक्त काषायिक वस्त्र खंड से इन प्रतिमाओं के शरीर को पोंछा, जिणपडिमाणं अहयाई सेयाई देवदूसजुयलाई णियंसेइ, णियं- पोंछकर सरस गोशीर्ष चन्दन का शरीर पर लेप किया, लेप करके सेत्ता अग्गेहि वरेहि य गंधेहि य मल्लेहि य अच्चे इ, अच्चित्ता अहत-अपरिमदित (कोरा) श्वेत देवदूष्य युगल पहनाया, देवदप्य पुप्फारहणं गंधारहणं मल्लारहणं वण्णारुहणं चुण्णारुहणं युगल को पहनाकर उत्कृष्ट, उत्तम गंध द्रव्यों और मालाओं से आभरणारुहणं करेइ, करेत्ता आसत्तोसत्त विउलवट्टवग्धारिय अर्चना की, अर्चना करके सामने पुष्पों को चढ़ाया, गंध द्रव्यों को मल्लदाम कलावं करेइ, करिता अच्छेहि सण्हेहिं रययामयेहिं चढ़ाया, मालाओं को चढ़ाया, वर्ण को चढ़ाया, चूर्ण को चढ़ाया, अच्छरसातंदुलेहि जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठमंगलए आलिहइ, और आभरणों को चढ़ाया, इन पुष्पादि को चढ़ाकर ऊपर से आलिहिता कयग्गाहग्गहिय-करयल पब्भट्ट विप्पमुक्केणं दसद्ध जमीन तक लटकती हुई लम्बी गोल गुथी हुई पुष्पमालाओं से वण्णेणं कुसुमेणं मुक्क पुष्फ पुजोवयारकलियं करेइ, विभूषित किया, विभूषित करके आकाश की तरह स्वच्छ, चिकने,
रजत जैसी कांति वाले, अक्षत-अखंड तंडुलों-चावलों से जिन प्रतिमाओं के सामने अष्ट मंगल द्रव्यों का आलेखन किया । आलेखन करके केशपाश ग्रहण करने जैसे हाथों के आकार विशेष (खोबा) से ग्रहण किये जाने के कारण हथेलियों से नीचे गिरने से शेष रहे, पंचरंगे उन्मुक्त खिले हुए पुप्पों के पुजों द्वारा पूजा की;
करिता चंदप्पभ बहर-वेरुलिय-विमल-दंडं-कंचन-मणि- -पूजा करके चन्द्रकान्त, वज्र और वैडूर्य रत्नमय विमल दंड रयण-भत्तिचित्तं कालागुरु-पवर-कुन्दुरुक्क-तुरुक्क-धूवगंधुत्त- वाले, स्वर्ण मणि और रत्नों से बने हुए चित्रामों से चित्रित श्रेष्ठ माणविद्धं धूमट्टि विणिम्मुयंतं वेरुलियामयं कडुच्छुयं पग- कालागुरु, कुन्दरुष्क, तुरुष्क, धूप की उत्तम गंध से युक्त, धमहित पयत्तेण धूवं दाऊण जिणवराणं अट्ठसय विसुद्ध गंथ वर्तिका को छोड़ रहे, ऐसे वज्ररत्न से बने हुए धूप-कडुच्छुक को जुहि महावितेहि अत्थजुत्तेहिं अपुणरुतेहिं संथुणइ, संथुणित्ता लेकर सावधानीपूर्वक उसमें धूप का प्रक्षेप करके विशुद्ध रचना से सत्तट्रपयाई ओसरइ, ओसरित्ता वार्म जाणु अंचे इ, अंचित्ता युक्त सार्थक, अपुनरुक्त ऐसे एक सौ आठ उत्तम छन्दों द्वारा स्तुति दाहिणं जाण धरणियलंसि णिवाडेइ, णिवाडित्ता तिक्खुत्तो की, स्तुति करके सात-आठ पैर आगे सरक गया, सरक कर बायाँ मुद्धाणं धरणियलंसि णमेइ, णमित्ता ईसि पच्चुण्णमइ, पच्चु- घुटना ऊपर उठाया, बायाँ घुटना ऊपर उठाकर दाहिना घटना ण्णमित्ता कडय-तृडिय थभियाओ भूयाओ पडिसाहरइ, पडि- जमीन पर टिकाया, टिकाकर तीन बार मस्तक को पृथ्वी दल साहरित्ता करयलपरिगहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट पर झुकाया, नमाया, मस्तक को नमाकर फिर कुछ ऊँचा उठा, एवं वयासी
ऊंचा उठकर कटकों और त्रुटितों से स्तंभित भुजाओं को समेटा
-एकत्रित किया, एकत्रित करके दोनों हाथों को जोड़ मस्तक पर आवर्त करके अंजलिपूर्वक उसने इस प्रकार कहा
'णमोऽत्थ अरिहंताणं भगवंताणं-जाव-सिद्धिगइ णामधेयं
“अरिहन्त भगवन्तों-यावत-सिद्धगति नामक स्थान को