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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
सूत्र २०१-२०५.
(३) मल्लालंकारेणं, (४) आभरणालंकारेणं चउविहेणं वस्त्रालंकार, (३) माल्यालंकार, और (४) आभरणालंकार रूप अलंकारेणं अलंकिए विभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहा- चार प्रकार के अलंकारों से पूर्णतया अलंकृत विभूषित हो चुका सगाओ अब्भुट्ठ'इ, अब्भट्ठित्ता अलंकारिय सभाओ पुरित्थि- तब सिंहासन से उठा, सिंहासन से उठकर पूर्व द्वार से होकर उस मिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव ववसाय आलंकारिक सभा से बाहर निकला, बाहर निकलकर जहाँ सभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ववसायसभं अणुप्प- व्यवसाय सभा थी वहाँ आया, वहाँ आकर व्यवसाय सभा की दाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरिथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, प्रदक्षिणा करते हुए पूर्व द्वार से उस व्यवसाय सभा में प्रविष्ट अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हुआ, प्रवेश करके जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया, और वहाँ सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसणे ।
आकर पूर्व की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १४२ विजयदेवस्स पोत्थयरयण-वायणं
विजयदेव का पुस्तकरत्न वांचन२०२. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स आभिओगियादेवा पोत्थय- २०२. तत्पश्चात् उस विजयदेव के आभियोगिक देव पुस्तकरत्न रयणं उवणेति।
को लाकर समक्ष रखते हैं । तए णं से विजए देवे पोत्थयरयणं गेण्हइ, गेण्हित्ता, पोत्थय- तदनन्तर विजय देव ने उस पुस्तक रत्न को लिया, लेकर रयणं मुयइ, मुएत्ता पोत्थयरयणं विहाडेइ, विहाडेत्ता पोत्थय- वेष्टन से बाहर निकाला, बाहर निकालकर खोला, खोलकर रयणं वाएइ, वायत्ता धम्मियं ववसायं पगेण्हइ, पगेण्हित्ता पुस्तक रत्न को वाँचा, वाचन करने के बाद धार्मिक व्यवसायपोत्थयरयणं पडिणिक्खवेइ, पडिणिक्खवित्ता सीहासणाओ प्रवृत्ति कार्य करने की अभिलाषा की, अभिलाषा करके-निश्चय अन्भुटुइ, अब्भुद्वित्ता ववसायसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं करके पुस्त करत्न को रख दिया, रखकर सिंहासन से उठा, उठकर पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव गंदा पोक्खरिणी तेणेव पूर्वी द्वार से होकर व्यवसाय सभा से बाहर निकला, बाहर उवागच्छइ, उवागच्छित्ता णदं पुक्खरिणि अणुप्पयाहिणी करे- निकलकर जहाँ नन्दा पुष्करिणी थी वहाँ आया, वहाँ आकर नन्दा माणे पुरिथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पुष्करिणी की प्रदक्षिणा करते हुए पूर्वी द्वार से उसमें प्रविष्ट पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवगएणं पच्चोरुहइ, पच्चोरु- हुआ, प्रविष्ट होकर पूर्व दिशावर्ती त्रिसोपान-प्रतिरूपक से नीचे हित्ता हत्थं पायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता एगं महं सेयं उतरा, नीचे उतर कर पुष्करिणी के जल से हाथ-पैरों को धोया, रययामयं विमलसलिलपुण्ण मत्तगयमहामुहाकिइसमाणं हाथ-पैरों को धोकर मदोन्मत्त गजेन्द्र के महामुख-सूंड की आकृति भिगार पगिण्हइ, पगिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाइ पउमाई- के समान आकृति वाले और विमल जल से परिपूर्ण ऐसे एक श्रेष्ठ जाव-सयसहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ, गिण्हित्ता गंदाओ पोक्ख- श्वेत चाँदी के बने हुए भृङ्गारक (जारी) को उठाया, भृङ्गारक रिणीओ पच्चुत्तरेइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सिद्धाययणे तेणेव को उठाने के बाद वहां जितने भी उत्पल, पद्म—यावत्-शतपहारेत्थ गमणाए।
पत्र, सहस्रपत्र आदि कमल थे, उनको लिया, कमलों को लेकर नन्दा पुष्करिणी से बाहर निकला, बाहर निकलकर जहाँ सिद्धाय
.तन था उस और गमन करने के लिए उद्यत हुआ। २०३. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणिय-साहस्सीओ २०३. तत्पश्चात् इस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव
-जाव-अण्णे य बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य अप्पेगइया यावत्-और दूसरे भी अनेक वाण-व्यंतर देव और देवियाँ जिनमें उप्पल हत्थगया-जाव-सहस्सपत्त हत्थगया, विजयं देवं पिट्ठओ से कितनेक हाथों में कमल लिये हुए थे-यावत्-कितनेक पिट्टओ अणुगच्छंति ।
सहस्रपत्र कमल लिये थे, उस विजय देव के पीछे-पीछे चले । २०४. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स बहवे आभिओगिया देवा २०४. उस विजय देव के बहुत आभियोगिक देव और देवियाँ
देविओ य कलस हत्थगया-जाव-धूवकडुच्छय हत्थगया विजयं हाथों में कलश लिये हुए-यावत्-धूप कडुच्छकों को लिये देव पिट्ठओ पिट्ठओ अणुगच्छति ।
विजय देव के पीछे-पीछे चले । -जीवा० ५० ३, उ० १ ० १४२ विजयदेवकयजिणपडिमाणं पूयणं
विजयदेवकृत जिन प्रतिमा पूजन२०५. तए ण से विजए देवे चहिं सामाणिय साहस्सीहि-जाव- २०५. तत्पश्चात् वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों