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सूत्र १९८-२०१
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
गणितानुयोग
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१९८. तए णं से विजए देवे महया महया इंदाभिसेएणं अभिसित्ते १६८. इसके बाद वह विजय देव जब महान् महोत्सव के साथ
समाणे सीहासणाओ अब्भुटुइ, अब्भुटुत्ता अभिसेयसभाओ इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त हो चुका तब सिंहासन से उठा और पुरथिमेणं दारेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिवखमित्ता जेणामेव उठकर अभिषेक सभा के पूर्वी द्वार से बाहर निकला, निकलकर अलकारियसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अलंकारिय- जहाँ अलंकार सभा थी वहाँ पर आया, वहाँ आकर अलंकार सभं अगुप्पयाहिणीकरेमाणे करेमाणे पुरथिमेणं दारेणं सभा की प्रदक्षिणा करते हुए पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रविष्ट अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छइ, हुआ, प्रविष्ट होने के बाद जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया, और उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे। वहाँ आकर पूर्वदिशा की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ उत्तम
सिंहासन पर बैठ गया।
१६६. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणिय-परिसोववण्णगा देवा १६६. तत्पश्चात् उस विजय देव के सामानिक परिषदोपपन्न देवों आभिओगिए देवे सद्दावेंति सद्दावित्ता एवं वयासी- ने आभियोगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार
कहा"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! विजयस्स देवस्स आलं- "हे देवानुप्रियो ! तुम शीध्र ही विजय देव के आलंकारिक कारियं भंडं उवणेह।"
भांड को उपस्थित करो। तेणेव ते आलंकारियं भंडं उवति ।
पूर्व वर्णन के समान वे आलंकारिक भांड को लेकर उपस्थित
करते हैं। २००. तए णं से विजए देवे तप्पढमयाए पम्हल सूमालाए दिव्वाए २००. तदनन्तर उस विजय देव ने सर्वप्रथम पद्मपराग अथवा
सुरभीए गंधकासाईए गायाइं लू हेइ, लू हित्ता सरसेणं गोसीस हंस के पंखों के समान सुकुमाल दिव्य सुगन्धित कापायिक गंध से चंदणेणं गायाइं अणुलिपइ, अणुलिपित्ता तयाऽणंतरं च णं युक्त वस्त्र खंड (तौलिया) से शरीर को पोंछा, पोंछकर सरस नासानीसासवायवझं चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं, हयलाला- गोशीर्ष चन्दन का शरीर पर लेप किया, अनुलेप करने के अनन्तरपेलवाइरेगं धवलं कणग-खइयंत कम्म आगासफलियसरिस- नाक की निश्वास वायु से उड़ जाये ऐसे नेत्राकर्षक सुन्दर वर्ण प्पभं अहतं दिव्वं देवदूसजुयलं णियंसेइ, णियंसित्ता हारं और स्पर्श से युक्त, घोड़े की लीद से भी अधिक सुकोमल और पिणि इ, पिणिवेत्ता एवं एकालि पिणिधति एकालि श्वेत-धवल-शुभ्र सुनहरी बेल-बूटे वाले, और आकाश-स्फटिकमणि पिणिधेत्ता;
की प्रभा जैसी प्रभा वाले अनोखे, दिव्य, देवदूष्य युगल को पहना, देवदूष्य युगल को पहनकर फिर हार को पहना, हार को पहनने के बाद इसी प्रकार से एकावली (एक लड़ी) हार विशेष को
पहना, एकावली को पहनकर फिरएवं एएणं अभिलावेणं मुत्तावलिं, कणगावलि, रयणावलिं, "उसने इसी प्रकार से अभिलाप-कथनानुसार मुक्तावली, कडगाई, तुडियाइं अंगयाइं केयूराई दसमुद्दियाशंतकं कडि- कनकावली, रत्नावली, करक, त्रुटित, अंगद, केयूर, दस सुत्तकं तेअत्यिसुत्तगं मुरवि कंठमुरवि पालंबंसि कुण्डलाई मुद्रिकाओं, कटिसूत्र, त्रयस्थिसूत्र, (तिमनिया), मुरवि, आभूषण चूडामणि चित्तरयणुक्कडं मउडं पिणि इ।"
विशेष, कंठमुरवि, प्रलंब सूत्र-कंठ से पैर तक लटकने वाला आभूषण विशेष, कुण्डल, चूड़ामणि, नाना प्रकार के रत्नों से
खचित उत्तम मुकुट आदि आभूषणों को यथास्थान पहना। पिणिधित्ता गंठिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेणं चउविहेणं आभूषणों को पहनकर ग्रन्थिम, वैष्टिम, पूरित और संघातिम मल्लेणं कप्परुक्खयं पिव अप्पाणं अलंकिय-विभूसियं करेइ, इस प्रकार चार तरह की मालाओं से अपने को कल्पवृक्ष जैसा करेत्ता बद्दर-मलय सुगंध गंधिएहि गंधेहिं गायाई सुक्किडइ, अलंकृत-विभूषित किया, विभूषित करके ददर मलय चन्दन की सुक्किडित्ता दिव्वं च सुमणदामं पिणिद्धाइ।
गन्ध से सुगन्धित गन्ध द्रव्यों से शरीर को सुवासित किया, सुवासित करके दिव्य पुष्पमाला को पहना ।
२०१. तए णं से विजए देवे (१) केसालंकारेणं, (२) वत्थालंकारेणं, २०१. तदनन्तर वह विजयदेव जब-(१) केशालंकार, (२)