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१८० लोक-प्रज्ञप्ति
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तिर्यक लोक विजयद्वार
अप्पेगइया देवा देवज्जोगं करेंति, अप्पेगइया देवा बिज्जुपारं करेति अगया देवा चेतुवर्णवं कति अप्पेोमइया देवा देवज्जो विज्जुयारं चेलुक्खेवं करेंति ।
अप्पेगइया देवा उप्पलहत्थगया - जाव-सहस्सपत्तहत्थगया ।
अप्पेगा देवा हत्या कलसहत्वगया-जाय धूव कडुच्छहत्थगया ।
हाय-हरिस विसयमाहिया विजयाए रायहाणीए सव्वओ समंता आधावेति परिधावति ।
तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणिय साहस्सीओ चारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ - जाव- सोलस आयरक्ख देवसाहस्सोओ अब विजय राहाणीवत्यच्या वाग मंतरा देवाय देवीओ य तेहि वरकमलपइट्ठाणेहि जाव अट्ठसएणं सोवण्णियाणं कलसाणं तं चैव जाव- अट्टसएणं भोमे
कलसा सय्यद हिंसय्यमट्टियाहि सम्बतुवरेह सम्य हिजाब सोहि सिद्धत्यहि सविडीए-जाव-नियोस नाइयरवेणं महया महया इंदाभिसेएणं अभिसिचंति अभिसिचित्ता पत्तेयं पत्तेयं सिरसावत्तं मत्थए अंजल कट्टु एवं वयासी
'जय जय नंदा, जय जय भद्दा, जय जय नंद भद्द ते अजियं जिणेहि, जियं पालियाहि, अजिगं जिणेंहि सत्तुपक्ख, जिगं पालेहि मित्तपक्खं, जिय भज्झे वसाहि, तं देव ! निरु वसग्गं, इंदो इव देवाणं, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं, धरणो व नागागं, भरहो इव मनुवाणं वणि पलिओ माई बहूणि सागरोवमाई चउन्हं सामाणियसाहस्सी - जाव- आयरक्ख देव साहस्सीणं विजयस्स देवस्स विज पाए रायहानीए अति बहु विजयरावहाणि रथ वाणं वाणमंतराणं देवाणं देवीणं य आहेवच्चं जाव आणा - ईसर सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहराहि" त्ति कट्टु महया महया सद्दणं जय जय सद्द पउंजति,"
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सूत्र १९७
कितने ही देव दिव्य उद्योत करते हैं, कितने ही देव आकाश को विद्यतमय (आतिशवाजी फटाखों को फोड़ने की चमक जैसा) करते हैं, कितने ही देव वस्त्र के बने गुब्बारे उड़ाते हैं, और सिनेक देव दिव्य उद्योत करते हैं, आकाश को विद्यतमय करते हैं, और गुब्बारे उड़ाते हैं ।
कितने ही देवों ने हाथों में कमल ले रखे हैं - यावत्शतदल - सहस्रदल कमल ले रखे हैं ।
कितने ही देव हाथों में घंटा लिये हैं, कलश लिये हैं - यावत् धूप का कच्छ धूपदान लिये है।
इस प्रकार से वे सबके सब देव हृष्ट-तुष्ट — यावत् - हर्षा - तिरेक से प्रफुल्लित हृदय वाले होकर विजया राजधानी के चारों ओर सभी दिशाओं में कभी इधर दौड़-भाग करते हैं, कभी उधर भागते हैं ।
"हे नन्द ! आपकी जय हो, जय हो, हे भद्र! आपकी जय हो, जय हो, हे नन्द-भद्र! आपकी जय-विजय हो, आप अजित पर विजय प्राप्त करें, विजितों का पालन करें, अजित शत्रुपक्ष को विजित - वश में करें और जित मित्र पक्ष का पालन-पोषण रक्षण करें, जिस अनुकूल मित्रगण को बसाओ हे देव देवों में इन्द्र की तरह, ताराओं में चन्द्र की तरह, असुरों में चमर की तरह, नागों में धरण की तरह, और मनुष्यों में भरत की तरह निरपसर्ग होकर विचरण करो एवं अनेक पोमों और सागरो पमों के समय तक चार हजार सामानिक देवों - यावत् - सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के और विजयदेव की विजया राजधानी एवं विजया राजधानी के निवासी और दूसरे बहुत से बाग व्यंतर जीवा० १०३ ३०२ ० १४१ देव-देवियों के आधिपत्य यावत्-ज्ञा-ऐश्वर्य सेनापतिको
करते हुए और उनको पालते हुए सुखपूर्वक समय वापन करो, इस प्रकार के स्वस्ति वचनों को कहकर बड़े जोर से जय-जयकार करते हैं ।
तत्पश्चात् चार हजार सामानिक देव अपने-अपने परिवार सहित चार अग्रमहिषियाँ - यावत् - सोलह हजार आत्मरक्षक देव और दूसरे बहुत से विजय राजधानी के निवासी वाणव्यंतर देव और देवियाँ उन श्रेष्ठ कमलों पर रखे हुए - यावत् - एक सौ आठ स्वर्ण के कलशों के तथा पूर्व में बताये गये अनुसार — यावत् - एक सौ आठ मृत्तिका कलशों के समस्त पवित्र जल से महानदियों हों तीर्थसरोवरों के जस से, और उनके तटों की मिट्टी से सर्व ऋतुओं के समस्त पुष्पों से- यावत् - सर्व औषधियों और सिद्धार्थकों से, समस्त ऋद्धि — यावत् — वाद्यघोषों की नाद ध्वनिपूर्वक महान् इन्द्राभिषेक द्वारा उस विजय देव का अभिषेक करते हैं, और अभिषेक करने के बाद प्रत्येक ने नतमस्तक हो अंजलिपूर्वक इस प्रकार कहा
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