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________________ १८६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र २०६.२१० जेणेव दाहिणिल्ला गंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, तत्पश्चात् जहाँ दक्षिण दिग्भाग की नन्दापुष्करिणी थी वहां लोमहत्थगं गेण्हइ, चेइयाओ य, तिसोवाणपडिरूवए य, तोरणे आया, आकर मयूरपिच्छी ली और उस मयूरपिच्छी से चैत्यों य, सालभंजियाओ य, बालरूवए य लोमहत्थएण पमज्जइ, का, त्रिसोपान, प्रतिरूपकों का, तोरणों का शालभंजिकाओं का पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए सिंचइ, सरसेणं गोसीस- और व्याल रूपों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके दिव्य उदकचंदणेणं अणुलिपइ, अणुलिपित्ता पुप्फारुहणं जाव धूवं दलयइ धारा से सींचा, सरस गोशीर्ष चन्दन से लेप किया, लेप करके दलयित्ता सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणं करेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला पुष्प चढ़ाये-यावत् -धूप जलाई, धूप जलाकर सिद्धायतन की णंदापुवखरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तहेव प्रदक्षिणा करते हुए जहाँ उत्तरदिशा की नन्दा पुष्करिणी भी वहाँ महिंदज्झया, चेइयरुक्खो, चेइयथूभे, पच्चित्थिमिल्ला, मणि- आया, वहाँ आकर उसी प्रकार से माहेन्द्र ध्वज, चैत्यवृक्ष, पेढिया, जिणपडिमा एवं उत्तरिल्ला पुरथिमिल्ला, दक्खि- चैत्यस्तम्भ, पश्चिम दिशा की मणिपीठिका, जिनप्रतिमा आदि णिल्ला। का वर्णन करना चाहिये, तथा उसी प्रकार से उत्तर पूर्व और दक्षिण दिशा सम्बन्धी द्वार, स्तम्भ, मुखमंडप, अर्चना आदि का वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। पेच्छाघरमंडवस्स वि तहेव, जहा दक्खिणिल्लस्स पच्चत्थि- प्रेक्षागृह मंडपों का भी उसीप्रकार वर्णन करना चाहिए मिल्ले दारे-जाव-दक्खिणिल्ला णं खंभपंती, मुहमंडस्स वि तिण्हं जैसा दक्षिण और पश्चिम दिशाओं के द्वारों का-यावत् -दक्षिण दाराणं अच्चणिया भणिऊणं दक्खिणिल्लाणं खंभपंती। दिशा की स्तम्भ पंक्ति, मुखमंडप का भी और तीनों द्वारों की अर्चना कहनी चाहिए, दक्षिण दिशा की स्तम्भ पंक्ति । उत्तरे दारे, पुरच्छिमे दारे, सेसं तेणेव कमेण-जाव-पुरत्थि- उत्तर द्वार, पूर्व द्वार का-यावत्-पूर्व दिशा की नंदा पुष्करिणी मिल्ला गंदा पुक्खरिणी जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेत्थ का शेष वर्णन पूर्व क्रमानुसार करना चाहिए। तत्पश्चात् जहाँ गमणाए। सुधर्मा सभा थी उसी ओर चलने को उद्यत हुआ। २१०. तए णं तस्स विजयस्स चत्तारि सामाणिय साहस्सीओ- २१०. तत्पश्चात् उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव [एयप्पभिई जाव सव्विड्ढीए जाव णाइयरवेणं जेणेव सभा [आदि-यावत्-सर्व ऋद्धि-यावत्-वाद्यध्वनिघोषों के साथ सुहम्मा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं णं सभं सुहम्मं जहाँ सुधर्मा सभा थी वहाँ आये; वहाँ आकर सुधर्मा सभा की अणुप्पयाहिणी करेमाणे करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुप- प्रदक्षिणा करते हुए पूर्वी द्वार से प्रवेश किया, प्रवेश करके जिनास्थियों बिसइ, अगुपविसित्ता आलोए जिणसकहाणं पणामं करेइ, के दर्शन कर प्रणाम किया, प्रणाम करके जहाँ मणिपीठिका थी जहाँ करित्ता जेणेव मणिपेढिया जेणेव माणवकचेइयखंभे, जेणेव माणवक चैत्य-स्तम्भ था, जहाँ वज्र रत्नमय गोल-गोल समुद्गक थे, वइरामया गोलवट्ट-समुग्गका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वहाँ आये, वहाँ आकर मयूरपिच्छी को लिया, मयूरपिच्छी को लेकर लोमहत्थयं गेण्हइ, गेप्हित्ता वइरामए गोलवट्टसमुग्गए लोम- गोल वर्तुलाकार समुद्गकों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके हत्थरण पमज्जइ, पमज्जित्ता वइरामए गोलवट्टसमुन्गए विहा- वज्ररत्नमय गोल-गोल समुद्गकों को खोला, खोलकर मयूरपिच्छिका डेइ, विहाडित्ता जिणसकहाओ लोमहत्थरणं पमज्जइ, से जिनास्थियों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके सुगन्धित पमज्जित्ता सुरभिणा गंधोदएणं तिसत्तखुत्तो जिणसकहाओ गन्धोदक से जिनास्थियों का इक्कीस बार प्रक्षालन किया, पक्खालेइ. पक्खालित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिपइ, प्रक्षालन करके सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया, लेप करके अणुलिपित्ता अग्मेहिं वरेहिं गंधेहि मल्ले हि य अच्चिणइ, सर्वोत्तम श्रेष्ठ गंध और मालाओं से अर्चना की, अर्चना करके अचिणि त्ता धूवं दलय इ. दलयित्ता वइरामा सु गोलबट्टसमु- धूप जलाई, धूप जलाकर वापस वज्ररत्नमय गोल समुद्गकों में गरसु पडिणिक्खवेइ, पडिणिक्खवित्ता माणवक चेइयखंभं उन्हें रखा, उन्हें वापस रखकर माणवक चैत्य स्तम्भ का मयूरलोमहत्थएणं पमज्ज इ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भु. पिच्छी से प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके दिव्य जल की धारा क्खेइ, अब्भुखित्ता सरसेणं गोसीस चंदणेणं चच्चए दलयइ, से सींचा, सींचकर सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया-थापे दलयित्ता पुष्फारहणं-जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाइ० धूबं लगाये, थापे लगाकर पुष चढ़ाये-यावत् - लटकती हुई लम्बी दलयइ, दलयित्ता जेण व सभाए सुहम्माए बहुमज्झदेसभार मालायें पहनाई, हाथों में लिये हुए विकसित पचरगे फूलों के तं चेव जेणेव सीहासणे तेणेव जहा दारच्चणिया। पुजों से पूजा की, धूप जलाई धूप जलाकर जहाँ सुधर्मा सभा का अन्तिम मध्यभाग था, जहाँ सिंहासन था, वहां आये, जैसे पूर्व में द्वार अर्चना की उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिये ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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