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________________ सूत्र २१०-२१४ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानयोग १८७ जेणेव देवसयणिज्जे तं चेव जेणेव खुड्डागे माहिंदज्झए जहाँ देवशय्या थी, जहाँ क्षुद्र, माहेन्द्रध्वज था, इत्यादि त चेव । वर्णन पूर्व के समान वहाँ समझना चाहिये। २११. जेणेव पहरणकोसे चोप्पाले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता २११. जहाँ प्रहरणकोश (आयुधशाला) था, चौपाल थी, वहाँ पत्तेयं पत्तेयं पहरणाई लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता आया, वहाँ आकर प्रत्येक प्रहरण (शस्त्र) को मयूरपिच्छी से सरसेणं गोसीसचंदणेणं तहेव सव्वं सेसपि दक्खिणदारं पोंछा, पोंछकर सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया, इत्यादि आदिकाउं तहेव णेयध्वं जाव पुरिथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी शेष वर्णन कर लेना चाहिये, दक्षिण द्वार आदि द्वारों का-- सव्वाणं सभाणं जहा सुहम्माए सभाए तहा अच्चणिया उववाय यावत्-पूर्व दिशा को नन्दा पुष्करिणी तक सभी सभाओं का सभाए । णवरं-देवसयणिज्जस्स अच्चणिया सेसासु सीहासणाण सुधर्मा सभा जैसा तथा अर्चना आदि का वर्णन पूर्ववत् जानना अच्चणिया हरयस्स जहा णंदाए पुरिणीए अच्चणिया। चाहिये, उपपातसभा का भी ऐसा ही वर्णन करना चाहिये, विशेष वहाँ देवशय्या की अर्चना तथा शेष सभाओं में सिंहासनों की अर्चना तथा हृदों की अर्चना नन्दा पुष्करिणी की अचना के समान समझना चाहिये। ववसायसभाए पोत्थयरयणं लोमहत्थए णं दिव्वाए उदग- तत्पश्चात् व्यवसाय सभा में आकर मयूरपिच्छिका से पुस्तक धाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं अण लिंपइ, अग्गेहिं वरेहिं रल का प्रमार्जन किया, दिव्य जलधारा को सींचा, सींचकर गंधेहि य मल्लेहि य अच्चिण इ अच्चिणित्ता सीहासणं लोम- सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया, सर्वोत्तम श्रेष्ठ गधद्रव्यों और हत्थएणं पमज्जइ जाव धूवं दलयइ। मालाओं से अर्चना की, अर्चना करके मयूरपिच्छी से सिंहासन का प्रमार्जन किया-यावत्-धूप जलाई। सेसं तं चेव णंदाए जहा हरयस्स तहा नन्दा पुष्करिणी के वर्णन की तरह ह्रदों का शेष वर्णन पूर्व के समान समझ लेना चाहिये। २१२. जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभिओगे २१२. तत्पश्चात् जहाँ बलिपीठ थी, वहाँ आया, आकर आभिदेवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी योगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा___ "खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विजयाए रायहाणीए "हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही विजया राजधानी के सिंघाडगेसु य, तिएसु य, चउक्केसु य, चच्चरेसु य, चउमुहेसु शृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और य, महापहपहेसु य, पासाएसु य, पागारेसु य, अट्टालएसु य, मार्गों, प्रासादों, प्राकारों, अट्टालिकाओं, चरिकाओं (दुर्ग और चरियास य, वारेसु य, गोपुरेसु य, तोरणेसु य, बावीसु य, नगर के बीच का मार्ग) द्वारों, गोपुरों, तोरणों, वापिकाओं. पुक्खरिणीस य,-जाव-बिलपंतियासु य, आरामेसु य, उज्जाणेसु पुष्करिणियों-यावत्-बिलपंक्तियों (कूप-कू'आ) आरामों, उद्यानों य, काणणेस य, वणेसु य, वणस डेसु य, वणराईसु य, अच्च- काननों, वनों, वनखंडों और वनराजियों में जाकर अर्चना करो, णियं करेह, करेत्ता ममेयमाणत्तिय खिप्पामेव पच्चप्पिणह। अर्चना करके आज्ञानुसार कार्य सम्पन्न होने की शीघ्र सूचना दो। २१३. तए णं ते आभिओगिया देवा विजएणं देवेणं एवं बुत्ता समाणा २१३. तत्पश्चात् विजयदेव के द्वारा इस प्रकार से कहे जाने पर -जाव-हरतद्रा विणएणं पडिसुति, पडिसुणित्ता विजयाए उन आभियोगिक देवों ने-यावत-हृष्ट-तुष्ट होकर विनयपर्वक रायडाणीए सिंघाडगेस य-जाव-अच्चणियं करेत्ता जेणेव विजए स्वीकार किया, स्वीकार करके विजया राजधानी के शृगाटकों देखनेणेव उवागच्छति. उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चपि- आदि में आये-यावत्-अर्चना करके जहाँ विजयदेव था. वहाँ णंति । आये और वहाँ आकर आज्ञानुसार कार्य सम्पन्न होने की सूचना देते हैं। २१४. तए णं से विजए देवे तेसि णं आभिओगियाणं देवाणं अंतिए २१४. तदनन्तर वह विजय देव इन आभियोगिक देवों की इस एयम सोच्चा णिसम्म हद्वतुटु चित्तमाणदिय-जाव-हयहियए बात को सुनकर और अवधारित कर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित जेणेव गंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता होता हुआ-यावत्-हर्षोल्लासपूर्वक जहाँ नन्दा पुष्करिणी थी पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं-जाव-हत्थ-पायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता वहाँ आया, वहाँ आकर पूर्व दिशावर्ती तोरण से-यावत्-हाथ
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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