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________________ १८८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र २१४-२२२ आयते चोक्खे परमसुइभूए गंदा पुवखरिणीओ पच्चुत्तरइ, पैरों का प्रक्षालन किया, प्रक्षालन करके आचमन-कुल्ला आदि पच्चुत्तरित्ता जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेत्थ गमणाए। करने से अत्यन्त स्वच्छ-शुद्ध परम शुचिभूत होकर नन्दा पुष्करिणी से वापस बाहर आया, बाहर आकर जहाँ सुधर्मा सभा थी उसी ओर चलने को उद्यत हुआ। २१५. तए णं से विजए देवे चउहि सामाणिय साहस्सीहि-जाव- २१५. तदनन्तर वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सोहि सव्विड्ढीए-जाव-निग्घोस यावत्-सोलह हजार आत्मरक्षक देवों सहित अपनी समस्त नाइयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता ऋद्धि-यावत्-वाद्यों की घोष ध्वनिपूर्वक जहाँ सुधर्मा सभा सभं सुहम्मं पुरिथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता थी वहाँ आकर पूर्व दिग्वर्ती द्वार से सुधर्मा सभा में प्रविष्ट हुआ, जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासण प्रवेश करके जहाँ मणिपीठिका थी, वहाँ आया, वहाँ आकर पूर्व वरगए पुरच्छाभिमुहे सण्णिसणे । दिशा की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया । -जीवा०प०३, उ० २, सु० २४२ सुहम्माए सभाए विजयदेवस्स सपरिकरणिसीयणं- सुधर्मा सभा में विजयदेव का सपरिकर बैठना२१६. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामागिय-साहस्सीओ २१६. तत्पश्चात् उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तर-पुरथिमेणं पत्तेयं पत्तेयं पुव्वणत्थेसु पश्चिम-उत्तर, उत्तर-पूर्व दिशा-ईशानकोण में पहले से अलगभद्दासणेसु णिसीयंति। अलग रखे हुए प्रत्येक भद्रासन पर अनुक्रम से आकर बैठ गये । २१७. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पत्तेयं २१७, तत्पश्चात् उस विजय देव की चार अग्रमहिषियों पूर्व दिशा पत्तेयं पुब्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति । में पहले से रखे हुए एक-एक भद्रासन पर आकर बैठ गईं। २१८. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरि- २१८. तदनन्तर उस विजयदेव की आभ्यन्तरिक परिषदा के याए परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ यत्तेयं पत्तेयं पुव्वणत्थेसु आठ हजार देव दक्षिण-पूर्व दिशा-आग्नेय कोण में पहले से ही भद्दासणेसु णिसीयति । ___रखे हुए अलग-अलग एक-एक भद्रासन पर बैठ गये । २१६. एवं दक्खिणेणं मज्झिमियाए परिसाए दसदेवसाहस्सीओ २१६. इसी प्रकार से मध्यम परिषदा के दस हजार देव दक्षिण जाव णिसीयंति । दिशा में यावत् बैठ गये। २२०. एवं दाहिण-पच्चत्थिमेणं बाहिरियार परिसाए बारस देव- २२०. इसी प्रकार से दक्षिण-पश्चिम दिशा-नैऋत्य कोण में साहस्सीओ जाव णिसीयंति । बाह्य परिषदा के बारह हजार देव-यावत्-बैठ गये । २२१. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पच्चत्थिमेणं सत्त अणियाहिवत्ती २२१. इसके बाद उस विजयदेव के सात अनीकाधिपति पश्चिम पत्तेयं पत्तेयं पुवणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति । दिशा में पहले से रखे हुए एक-एक भद्रासन पर बैठ गये । २२२. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पुरथिमेणं दाहिणणं पच्चत्थि- २२२. तदनन्तर उस विजय देव के सोलह हजार आत्मरक्षक देव मेणं उत्तरेणं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं पूर्व दिशा में, दक्षिण दिशा में, पश्चिम दिशा में, और उत्तर पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति । तं जहा-पुरथिमेणं दिशा में पहले से रखे हुए एक-एक भद्रासन पर बैठ गये, यथाचत्तारि आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं पुटवणत्थेसु चार हजार आत्मरक्षक देव पहले से ही पूर्व दिशा में अलग-अलग भद्दासणेसु णिसीयंति । एवं जाव उत्तरेणं । रखे हुए प्रत्येक भद्रासन पर बैठे, इसी प्रकार से-यावत् - उत्तरदिशा में पूर्व से रखे हुए प्रत्येक भद्रासन पर बैठे। तेणं आयरक्खा सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवया, उप्पीलिय- वे आत्मरक्षक देव अच्छी तरह कसकर शरीर पर बस्तर सरासण-पट्टिया, पिणद्ध-गवेज्ज-विमलवर-चिंधपट्टा, गहिया- बाँधे हुए थे, उनके हाथों में शरासनपट्टिका (धनुप खींचने के समय हाथ की रक्षा के लिये बाँधा जाता चमड़े का पट्टा) बँधी हुई थी, गले में सुभट चिह्नपट रूप विमल और श्रेष्ठ ग्रंवेयकहार रखा था, हाथों में प्रहार करने हेतु आयुध-शस्त्र लिये हुए थे, तीन स्थानकों (आदि, मध्य और अन्तरूप तीन स्थानों) में
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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