________________
सूत्र ७६.७८
एएमु णं सत्तसु धनोदही पिडलगपणठाण संठियाओ सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- पढमा जाव सत्तमा - ठाणं ० ० ७ सु० ५४६ ।
७७ : तिपट्टिया णरगा पण्णत्ता, तं जहा
(१) पुढविपट्टिया
(३) आयपट्टिया । गम-संहाराणं पुढविपट्टिया ।
उस आगासपट्टिया सिन्हं सहनवाणं आवपट्टिया
(२) बागासपट्टिया
- ठाणं०
अधोलोक
०३, उ० ३, सु० १८६ ।
पुढवीण पमाण
७८ ० इमाणं भंते रमणभावी केवतिया बाहल्लेणं पण्णत्ता ?
उ० गोपमा ! इमाणं रणध्यभापुढची अति उत्तरं जोयणसय सहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता ।
एवं एएणं अभिलावेणं इमा गाहा अणुगंतव्यागाहा-आसोत
बत्तीसं-, अट्ठावीस
तहेव वीस च ।
अट्ठारस
सोलसगं-,
अट्ठत्तरमेव हिमिया ॥
- जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ६८ ।
गणितानुयोग ३७
इन सात घनोदधियों पर फूलों की चंगेरियों के समान विस्तृत संस्थान से संस्थित सात पूचियां कही गई हैं, यथा-पहली यावत सातवीं.....
७७: नरक त्रिप्रतिष्ठित-तीन पदार्थों पर आश्रित कहा है,
यथा---
(२) आकाश प्रतिष्ठित,
(१) पृथ्वी - प्रतिष्ठित, (३) आत्म-प्रतिष्ठित ।
(१) नंगम-संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा पृथ्वी पर आश्रित है।
(२) ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा आकाश पर आश्रित हैं ।
(३) और तीन शब्द नयों (शब्द, समभिरूढ़ एवंभूत) की अपेक्षा आत्म-प्रतिष्ठित अर्थात् स्वाश्रित हैं ।....
पृथ्वियों का प्रमाण
७८ : प्र० भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कितनी मोटी कही गई है ?
उ० गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी कही गई है ।
इस प्रकार ऐसे प्रश्नोत्तरों से इस गाथा की व्याख्या करनी चाहिए ।
गाथार्थ - (१) रत्नप्रभा १,८००० योजन मोटी है, (२) शर्कराप्रभा १,३२,००० योजन मोटी है, (३) बालुकाप्रभा १,२६,००० योजन मोटी है, (४) पंकप्रभा १,२०,००० योजन मोटी है, (५) धूमप्रभा १,१८,००० योजन मोटी है, (६) तमप्रभा १,१६,००० योजन मोटी है, (७) तमस्तमप्रभा १,०८,००० योजन मोटी है ।
१.
इस सूत्र के टीकाकार श्री अभयदेवसूरी के सामने स्थानांग की जितनी प्रतियाँ थी उनमें सात पृथ्वियों के संस्थान तीन प्रकार के पाठों में मिले हैं- ऐसा वे स्वयं लिखते हैं
....
"छत्तातिछत्तसंठाण संठिया"- . टीका... तथा छत्रमतिक्रम्य छत्रं छत्रातिच्छत्रं तस्य संस्थानं - आकारोऽधस्तनं छत्रं मह दुपरितनं चिति न संस्थिताः छत्रातिच्छत्रसंस्थानसंस्थिताः। इदमुक्त' भवति सप्तमी सप्तरविस्तृत यादयकेकर होना इति ।
क्वचित्पाठ: पिलग लिग असंठिया "तत्र पल-पल पुष्पभाजनं तद्वत्ससंस्थानसंस्थिता इति पटलक-पृयुलसंस्थानसंस्थिताः ।
"पृथुल - पृथुल संस्थान संस्थिता" इति क्वचित्पाठः स च व्यक्त एव ।
- ठाणं० सु० १४६ टीका ।
२.
इन दोनों सूत्रों में सात पृथ्वियों के आधार भिन्न-भिन्न प्रकार से कहे गये हैं—दोनों सूप स्थानांग के हैं किन्तु प्रतिपादन शैली की कितनी भिन्नता है। प्रथम सूत्र में घनोदधी, घनवात, तनुवात आदि आधार कहे गये हैं और द्वितीय सूत्र में इनके नाम भी नहीं है । नय सापेक्ष कथन होने से अभिन्नता है - ऐसा समझना चाहिए ।